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________________ ३३० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ परियट्टणवाराणं एत्तियमेत्ता त्ति पमाणपरूवणा किण्ण कया ? ण, सव्वुक्कस्सा ण एत्थ होति, किंतु तप्पाओग्गा चेवे त्ति जाणावणहमेत्तियमेत्ता त्ति अपरूवणादो । कुदो सव्वुक्कस्सवाराणमसंभवो ? ण, तहा संते णिव्वाणगमणं मोत्तण वेछावहिसागरोवममेत्तकालं संसारे परिब्भमणाभावादो। ण चेसा सव्वा खविदकिरिया विसंजोइज्जमाणाणमणंताणुबंधीणं णिरत्थिया, सेसकसायदव्बस्स थोवयरीकरणेण फलोवलंभादो । णेदं पयदाणुवजोगी, अणंताणुबंधी विसंजोएऊण पुणो वि अंतोमुहुत्तेण संजुज्जंतस्स अधापवत्तसंकमेण पडिछिज्जमाणसेसकसायदव्वाणमप्पदरीभूदाणमुवजोगित्तदंसणादो । एवमणंताणुबंधी विसंजोइय अंतोमुहुत्तसंजुत्तो अघोपवत्तसंकमेण पडिबिजमाणससकसायदव्वाणमप्पदरीभूदाणमुवजोगितदंसणादो । एवमणंताणुबंधी विसंजोइय अंतोमुहुत्तसंजुत्तो अधापवत्तभागहारोवट्टिददिवगुणहाणिमेत्तेइंदियसमयपबद्धदव्वं सेसकसाएहितो पडिच्छिदं सगंतोभाविदअंतोमुहुत्तमेत्तणवकबंध घेत्तूण तदो वेलावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालियूण मिच्छत्तं गओ । किमहमेत्तो सम्मत्तलंभेण वेछावहिसंयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना इनके परिवर्तनवार इतने होते हैं इस प्रकार इनके प्रमाणका कथन क्यों नहीं किया ? समाधान--नहीं, क्योंकि यहाँ पर उन संयमासंयमादिके सर्वोत्कृष्ट बार नहीं होते, किन्तु तत्प्रायोग्य होते हैं इस प्रकार इस बातके जतानेके लिये इतने होते हैं यह कथन नहीं किया। शंका-यहाँ सर्वोत्कृष्ट वार क्यों सम्भव नहीं हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ पर सर्वोत्कृष्ट बारोंके मान लेनेपर निर्वाण गमनके सिवा दो छयासठ सागर कालतक संसारमें परिभ्रमण करना नहीं बन सकता है, इसलिये यहाँ पर सर्वोत्कृष्ट बार सम्भव नहीं है। यदि कहा जाय कि विसंयोजनाको प्राप्त होनेवाली अनन्तानुबन्धियोंकी यह सब क्षपणा सम्बन्धी क्रिया निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि शेष कषायोंके द्रव्यका परिमाण अल्प कर देना यही इसका फल है । यदि कहा जाय कि शेष कषायोंका द्रव्य अल्प होता है तो होओ पर इसका प्रकृतमें क्या उपयोग है सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्तमें पुनः इससे संयुक्त होने पर अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा शेष कषायोंका अल्प द्रव्य विच्छिन्न होकर इसमें प्राप्त होता है, इसलिये शेष कषायोंके द्रव्यके अल्प होनेकी उपयोगिता है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके और अन्तर्मुहूर्तमें उससे संयुक्त होकर अल्प हुए शेष कषायोंके द्रव्यके अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा उनसे विच्छिन्न होकर इसमें प्राप्त होने पर शेष कषायोंके द्रव्यके अल्प होनेकी उपयोगिता देखी जाती है। इस प्रकार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके जब पुनः अन्तर्मुहूर्तमें इससे संयुक्त होता है तब अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित डेढ़ गुणहानि प्रमाण एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध द्रव्य शेष कषायोंसे विभक्त होकर इसमें प्राप्त होता है तथा अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्वमें रहने के कारण अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नवकसमयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं। इस प्रकार अनन्ताबन्धीके इतने द्रव्यको प्राप्त करके और तदनन्तर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन करके यह जीव मिथ्यात्वमें जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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