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________________ wwward गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३२६ इहिस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ ति मुत्तत्थसंगहो । किमहमेसो मुहुमणिगोदेसु कम्महिदि हिंडाविदो ? ण, कम्महिदिमेत्त कालं तत्थावहाणेण विणा जहण्णसंचयाणुववत्तीदों। अदो चेय संपुण्णा एसा सुहुमणिगोदेसु समाणेयवा । सुत्ते पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेणणियं कमहिदिमच्छिदो ति अपरूवणादो । तत्थ य संसरमाणस्स वावारविसेसो छावासयपडिबद्धो पुव्वं परूविदो ति ण पुणो परूविज्जदि गंथगउरवभएण। तदो कम्महिदिबहिन्भूदपलिदोवमासंखेजदिभागमेतकालभंतरे संजमासंजमं संजमं च बहुसो लभिदाउओ। एत्थतण 'च' सद्देण अवुत्तसमुच्चयटेण सम्मत्ताणताणुबंधिविसंजोयगकंडयाणमंतभावो वत्तव्यो । बहुसो बहुवारं लभिदाउओ लवंतओ । संजमासंजमादीणमसई लभो ण णिप्पोजणो, गुणसेदिणिज्जराए बहुदव्वगालणफलत्तादो । तत्थेव अवांतरवावारविसेसपरूवणहमेदं वुत्तं । चत्तारि वारे कसाए उवसामियण तदो अणंताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो ति । बहुप्रा कसाउवसामणवारा किण्ण होंति ? ण, एयजीवस्स चत्तारि चारे मोत्तण उवसमसेढिआरोहणासंभवादो। कसायुवसामणवाराणं व संजमासंजम-संजम-सम्मत्त अणंताणुबंधिविसंजोयणकरके मिथ्यादृष्टि हुआ है उस मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका सार है। शंका-इसे कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्मनिगोदियोंमें क्यों भ्रमाया है ? समाधान नहीं, क्योंकि कर्मेस्थितिप्रमाण कालतक वहां रहे विना जघन्य संचय नहीं बन सकता है। और इसीलिये पूरी कर्मस्थितिप्रमाण कालको सूक्ष्मनिगोदियोंमें बिताना चाहिये, क्योंकि सूत्रमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण कालतक रहा ऐसा सूचित भी नहीं किया है। कर्मस्थितिप्रमाण कालके भीतर परिभ्रमण करते हुए जो छह आवश्यकसम्बन्धी व्यापार विशेष होता है उसका पहले कथन कर आये हैं, इसलिये ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे उनका यहाँ पुनः कथन नहीं किया जाता है। तदनन्तर कर्मस्थितिके बाहर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर बहुत बार संयमासंयम और संयमको प्राप्त किया। यहाँ सूत्र में जो 'च' शब्द है वह अनुक्त विषयका समुच्चय करनेके लिये आया है जिससे सम्यक्त्वके काण्डकोंके अन्तर्भावका और विसंयोजनासम्बन्धी काण्डकोंके अन्तर्भावका कथन कर लेना चाहिये । इस प्रकार इन सबको बहुत बार प्राप्त करता हुआ । इन सबका अनेक बार प्राप्त करना निष्प्रयोजन नहीं है, क्योंकि इसका फल गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा बहुत द्रव्यका गला देना है। या वहीं पर अवान्तर व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये यह कहा है। फिर चार बार कषायोंका उपशम करके फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उससे संयुक्त हुआ। शंका-कषायोंके उपशमानेके बार चारसे अधिक बहुत क्यों नहीं होते हैं ? समाधान-नहीं, क्योंकि एक जीव चार बार ही उपशमश्रेणि पर आरोहण कर सकता है, इससे और अधिक बार उपशमणि पर आरोहण करना सम्भव नहीं है। शंका-जैसे कषायोंके उपशमानेके बारोंका स्पष्ट निर्देश किया है वैसे ही संयमासंयम, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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