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________________ ३२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ति पच्चवयं, एदम्हादो चैव सुतादो तत्वो एदस्स थोवभावसिद्धीदो । * अताबंधीणं जहण्णयमोकडुणादो उक्कडपादो संकमणादो च हिदियं कस्स ? $ ५५३. सुगममेदं पुच्छासुतं । * सुमणि सु कम्मडिदिमणुपालियूण संजमासंजमं संजमं च बहुसो लभिदाउ चत्तारि वारे कसाए उवसामेण तदो अताणुबंधी विसंजोएऊण संजोइदो तदो वेछावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपा लेयूए तदो मिच्छत्तं गदो तस्स पढमसमयमिच्छाइटिस्स जहण्णयं तिरहं पि डिदियं । ९५५४. खविदकम्मंसिय पच्छायदभमिदवेछावद्विसागरोवमपढमसमयमिच्छा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्यों इसी सूत्र से प्रथम समयवर्ती द्रव्यकी अपेक्षा यह विवक्षित द्रव्य कम सिद्ध होता है । [ पदेसविहत्ती ५ विशेषार्थ — यहाँ पर उपशान्तकषायचर देवके उत्पन्न होनेके समय से लेकर एक आवलिकालके अन्तमें जघन्य स्वामित्व बतलाया है, देवपर्याय में उत्पन्न होनेके प्रथम समय में क्यों नहीं बतलाया इसका उत्तर यह है कि उदय समयसे लेकर एक आवलिकाल तक निषेकों की जो रचना होती है वह उत्तरोत्तर चयहीन क्रमसे होती है अतः प्रथम समय में जो द्रव्य प्राप्त होता है उससे लिके अन्तिम समय में प्राप्त होनेवाला द्रव्य एक समय कम एक आवलिप्रमाण चयोंसे हीन होता है यही कारण है कि विवक्षित जघन्य स्वामित्व देव पर्यायमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में न देकर प्रथम समयसे लेकर एक अवलिप्रमाण कालके अन्तिम समयमें दिया है । यद्यपि यह आवलिप्रमाण कालका अन्तिम समय जब तक उदय समयको प्राप्त होता है तब तक इसमें प्रति समय उदीरणाको प्राप्त होनेवाले द्रव्यका संचय होता रहता है तो भी वह सब मिलकर उक्त सूत्र के अभिप्रायानुसार प्रथम समयवतीं द्रव्यसे न्यून होता है, इसलिये विवक्षित जघन्य स्वामित्व प्रथम समय में नहीं दिया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । * अनन्तानुबन्धियों के अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण से झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६५५३. यह पृच्छासूत्र सुगम है । * कोई एक जीव है जो सूक्ष्मनिगोदियोंमें कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रहा तदनन्तर अनेक बार संयमासंयम और संयमको प्राप्त करके चार बार कषायका उपशम किया । फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके उससे संयुक्त हुआ । फिर दो छयासठ सागरप्रमाण कालतक सम्यक्त्वका पालन करके मिथ्यात्वमें गया । वह प्रथम समवर्ती मिध्यादृष्टि अपकर्षण आदि तीनकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओं का स्वामी है । $ ५५४. जो क्षपित कर्मांशविधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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