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________________ मा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३३१ सागरोवमाणि भमाडिदो ? ण, सम्मत्तमाहप्पेण बंधविरहियाणमणंताणुबंधीणमाएण विणा वयमुवगच्छंताणमइजहण्णगोवुच्छविहाण तहा भमाडणादो। पुणो मिच्छत्तं किं णीदो ? ण, अण्णहा एत्थुइसे दसणमोहक्खवणमाढवेतस्स पयदजहण्णसामित्तविघादप्पसंगादो। तस्स पढमसमयमिच्छाइद्विस्स जहण्णयं तिग्णं पि ओकड्णादो झीणहिदियं होइ। एत्थ सिस्सो भणइ-मिच्छाइहिपढमसमए अणंताणुबंधीणं सोदएण आवलियमेत्तहिदीओ सामित्तविसईकयायो होति । सम्माइहिचरिमसमए पुण तेसिमुदयाभावेण त्थिवुक्कसंकमणादो समयूणावलियमेतद्विदीओ लभंति, तदो तत्थेव जहण्णसामित्तं दाहामो लाहदसणादो ति ? ण एस दोसो, एत्थ वि अणंताणुबंधिकोहादीणमण्णदरस्स जहण्णभावे इच्छिज्जमाणे तस्साणुदयं कादूण परोदएणेव सामित्तविहाणे समयणावलियमेत्ताणं चेव गोवुच्छाणमुवलंभादो। तदो तप्परिहारेणेत्थेव सामित्तं दिण्णं, गोवुच्छविसेसं पडुच्च विसेसोवलद्धीदो । जइ एवमुदयावलियमाबाहं वा आवलियूणं वोलाविय उवरि जहण्णसामित्तं दाहामो ? शंका-आगे सम्यक्त्व प्राप्त कराकर दो छयासठ सागरप्रमाण काल तक क्यों भ्रमण कराया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वके माहात्म्यसे बन्ध न होनेके कारण आयके बिना व्ययको प्राप्त होनेवाली अनन्तानुबन्धियोंकी गोपुच्छाओंको अत्यन्त जघन्य करनेके लिये इस प्रकार भ्रमण कराया गया है। शंका-इस जीवको पुनः मिथ्यात्वमें क्यों ले जाया गया है ? समाधान—नहीं, क्योंकि यदि इसे पुन: मिथ्यात्वमें नहीं ले जाया गया होता तो वह दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ कर देता जिससे इसके प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विघात प्राप्त हो जाता। शंका-प्रथम समयवर्ती वह मिथ्यादृष्टि अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीन स्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है इस प्रकार यह जो कहा है सो इस विषयमें शिष्यका कहना है कि मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धियोंका उदय होनेके कारण एक आवलिप्रमाण स्थितियाँ स्वामित्वके विषयरूपसे प्राप्त होती हैं । किन्तु सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें तो अनन्तानुबन्धियोंका उदय नहीं होनेके कारण और उदय स्थितिका स्तिवुक संक्रमणद्वारा संक्रमण हो जानेसे एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थितियाँ प्राप्त होती है, इसलिये सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें ही प्रकृत स्वामित्वके देने में अधिक लाभ है ? समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समयमें भी अनन्तानुबन्धिसम्बन्धी क्रोधादिकमेंसे जिसका जघन्य स्वामित्व इच्छित हो उसका अनुदय कराके परोदयसे ही स्वामित्वका कथन करने पर एक समय कम एक आवलिप्रमाण ही गोपुच्छाए पाई जाती हैं, इसलिये सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयको छोड़कर मिथ्याष्टिके प्रथम समयमें ही स्वामित्वका विधान किया है, क्योंकि गोपुच्छविशेषकी अपेक्षा विशेषकी उपलब्धि होती है। शंका-यदि ऐसा है तो उदयावलिको बिताकर या एक प्रावलि कम आबाधा कालको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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