SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तत्थतणगोवुच्छाणमेत्तो चडिदद्धाण मेत्त विसेसेहि हीणत्तेण लाहदसणादो । ण एत्थ णवकबंधासंका कायव्वा, आबाहादो उवरि तस्सावहाणादो त्ति ? णेदं घडदे, कुदो ? उदयावलियबाहिरे मिच्छाइहिपढमसमयप्पहुडि बज्झमाणाणमणंताणुबंधीणमुवरि समहिदीए सेसकसायदव्वस्स अधापवत्तेण संकमोवलंभादो बंधावलियमेत्तकालं वोलाविय सगणवकबंधस्स चिराणसंतेण सह ओकड्डिय समयाविरोहेणावाहाभंतरे णिक्खित्तस्सोवलंभादो च । तम्हा अधापवत्तसंकमेण पडिच्छिददव्वे उदयावलियबाहिरहिदे संते जहण्णसामित्तं दिज्जइ त्ति समंजसमेदं सुत्तं ।। ___ ५५५. तदो मुत्तस्स समुदायत्थो एवं वत्तव्यो-खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्महिदि समयाविरोहेण परिभमिय पुणो तसभावेण संजमासंजम-संजम-सम्मत्ताणंताणुबंधिविसंजोयणकंडयाणि तप्पाओग्गपमाणाणि बहूणि लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामिय पुणो वि एइंदिएसु पलिदोवमासंखेजदिमागमेत्त कालभंतरे उवसामयसमयपबद्ध णिग्गालिय तत्तो णिपिडिय असणिपंचिदिएमु अंतोमुहुत्तं वोलाविय आउअबधवसेण देवेसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्तेण छप्पज्जत्तीओ समाणिय उवसमसम्मत्तं बिताकर ऊपरक। स्थितियोंमें जघन्य स्वामित्वका विधान करना चाहिये, क्योंकि वहाँ की गोपुच्छाए यहाँसे जितना स्थान ऊपर जाकर वे प्राप्त हुई हैं उतने विशेषोंसे हीन हैं, अतः वहाँ जघन्य स्वामित्वका विधान करने में लाभ दिखाई देता है। और यहाँ नवकबन्धके प्राप्त होनेकी भी आशंका नहीं है, क्योंकि नवकबन्धका अवस्थान आबाधाके ऊपर पाया जाता है ? समाधान-परन्तु यह कहना घटित नहीं होता, क्योंकि एक तो उदयावलिके बाहर मिथ्यादृष्टिके प्रथम समयसे लेकर बंधनेवाले अनन्तानुबन्धियोंके ऊपर समान स्थितिमें शेष कषायोंके द्रव्यका अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा संक्रमण पाया जाता है और दूसरे बन्धावलिप्रमाण कालको बिताकर अपने नवकवन्धका प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मके साथ अपकर्षण होकर श्रागममें बतलाई गई विधिके अनुसार आबाधाके भीतर निक्षेप देखा जाता है, इसलिये उदयावलिको बिताकर या एक आवलि कम आबाधाकालको बिताकर ऊपरकी स्थितियोंमें प्रकृत जघन्य स्वामित्वका विधान करना उचित नहीं है। इसलिये अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा विच्छिन्न हु ! द्रव्यके उदयावलिके बाहर स्थित रहते हुए जघन्य स्वामित्वका विधान किया गया है इसलिये यह सूत्र ठीक है। $ ५५५. इतने निष्कर्षके बाद इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ इस प्रकार कहना चाहियेजैसी आगममें विधि बतलाई है तदनुसार कोई एक जीव क्षपितकाशकी विधिसे कर्मस्थितिप्रमाण काल तक परिभ्रमण करता रहा । फिर त्रस होकर तत्प्रायोग्य बहुत बार संयमासंयम, संयम, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनासम्बन्धी काण्डकोंको करके चार बार कषायोंका उपशम किया। फिर दूसरी बार भी एकेन्द्रियों में जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके भीतर उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंको गलाकर और वहाँसे निकलकर असंज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर आयुबन्ध हो जानेसे देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर अन्तर्मुहूर्तमें छह पर्याप्तियोंको पूरा करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर उपशम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy