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________________ गा० २२] पदेस वित्तीय झीणाझीणचूलियाए सामित्त ४८७. सुगमं । * गुणिदकम्मंसि संजमासंजमगुणसेडी संजमगुणसेडी च एदाओ गुणडीओ काऊ मिच्छत्तं गदो । जाधे गुणसे डिसीसयाणि पढमसमयमिच्छादिस्सि उदयमागयाणि तावे तस्स उक्कस्सयमुदयादो भी हिदियं । ४८८, एदस्स स्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा — जो गुणिदकम्मंसिओ संजमा संजमगुणसेडी संजमगुणसेडी चेदि एदाओ गुणसेडीओ सव्वुक्कस्स परिणामेहि काऊण परिणामपच्चएण मिच्छतं गओ तस्स पढमसमयमिच्छाइट्ठिस्स जाधे गुणसेडिसीसयाणि दो विएगीभूदाणि उदयमागदाणि ताधे मिच्छतस्स उक्कस्सयमुदयादो २७६ डिदियं होदित्ति पदसंबंधो। कधमेदाओ दो वि गुणसेडीओ भिण्णकाल संबंधिणीच एयह काउंसक्किज्जंति ? ण, संजमगुणसेडिणिक्खेवायामादो संजमासंजमगुणसे डिणिक्खेवदीहत्तस्स संखेज्जगुणतेण कमेण कीरमाणीणं तासि तहाभावाविरोहादो । तदो गुणिदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण सतमढवीदो उच्चट्टिय सव्वलहुं समयाविरोहेण ६४८७. यह सूत्र सुगम है । * कोई एक गुणितकर्माशवाला जीव संयमासंयमगुणश्रेणि और संयमगुणश्रेण इन दोनों गुणश्रेणियों को करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस Grah जब मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके प्रथम समयमें गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त होते हैं तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है । $ ४८८. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं जो इस प्रकार है- जो गुणितकर्मांशवाला जीव सर्वोत्कृष्ट परिणामों के द्वारा संयमासंयमगुणश्रेणि और संयमगुणश्रेणि इन दोनों गुणश्रेणियों को करके अनन्तर परिणाम विशेषके कारण मिध्यात्वको प्राप्त हुआ उस मिध्यादृष्टि के प्रथम समय में जब दोनों ही गुणश्रेणिशीर्ष मिलकर उदयको प्राप्त होते हैं तब मिध्यात्वके उदयकी अपेक्षा उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्म परमाणु होते हैं यह इस सूत्रका वाक्यार्थ है 1 शंका- ये दोनों ही गुणश्रेणियाँ भिन्न कालसे सम्बन्ध रखती हैं, इसलिये इन्हें एकत्र कैसे किया जा सकता है ? - समाधान — नहीं, क्योंकि संयमगुणश्रेणिके निक्षेपकी दीर्घतासे संयमासंयमगुणश्रेणिके निक्षेपकी दीर्घता संख्यातगुणी है, इसलिये इन्हें क्रमसे करनेपर इनके एकत्र होनेमें कोई विरोध नहीं आता है। किसी एक जीवने गुणित कर्मांशकी विधिसे आकर और सातवीं पृथिवीसे निकलकर अतिशीघ्र आगमोक्त विधिसे प्रथम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके उपशम सम्यक्त्वके कालको व्यतीत १. 'गुणिदकम्मंसियस्स दोगुण सेडीसीसयस्स । - धव० ० ५० १०६५ । 'मिच्छत्तमी सगंताणुबंधिश्रसमत्तथी गिद्धीणं । तिरिउदएगंताण य विइया तइया य गुणसेडी ॥' - कर्मप्र० उदय गा० १३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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