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________________ २७८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४८५. संपहि एदस्स सामित्तविसईकयदव्वस्स पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-दिवडगुणहाणिमेत्तकस्ससमयपबद्धे दृषिय पुणो समयूणावलियाए ओवट्टिदचरिमफालीए तप्पागोग्गपलिदोवमासंखेजभागमेत्तरूवभजिदाए भागे हिदे एवं दव्वमागच्छदि,अभंतरीकयचरिमफालिणिसेयस्स गुणसेडिगोवुच्छदव्वस्स पाहणियादो। अधवा दिवडगुणहाणिगुणिदमुक्कस्ससमयपबद्धं ठविय ओकड्डुक्कड्डणभागहारेण तप्पागोग्गपलिदोवमासंखेज्जभागेण गुणिय किंचूणीकएण तम्मि भागे हिदे पयदसामित्तविसईकयदव्यमागच्छदि ति वत्तव्वं । एवमुवरि वि सव्वत्थ बत्तव्यं । संपहि एदेण समाणसामियाणं उक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियाणमेदेण चेय गयत्थाणं सामित्तपरूवणहमुत्तरसुत्तमोइण्णं ॐ तस्सेव उक्कस्सयमुक्कड्डणादो संकमणादो च झीणहिदियं । ४८६. गयत्थमेदं मुत्तं । संपहि उदयादो झीणहिदियस्स उक्कस्ससामित्तपरूवण पुच्छासुत्तेणीवसरं करेइ * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं कस्स ? जितना द्रव्य रहता है उस सबसे अधिक क्षपणाके समय अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके बाद उदयावलिमें रहता है, क्योंकि यहाँ उदयावलिमें गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य पाया जाता है जो कि उत्तरोत्तर असंख्यात गुणितक्रमसे स्थापित है, इसलिये जो जीव मिथ्यात्वकी अन्तिम स्थितिका खण्डन करके उदयावलिके भीतर प्रविष्ट है वह मिथ्यात्वके अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६४८५. अब उत्कृष्ट स्वामित्वके विषयभूत द्रव्यके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है -डेढ़ गुणहानिप्रमाण उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंको स्थापित करके उनमें, तद्योग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित अन्तिम फालिमें एक समय कम आवलिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसका भाग देनेपर यह उत्कृष्ट द्रव्य आता है, क्योंकि यहाँ अन्तिम फालिके निषेकोंके भीतर गुणश्रेणि गोपुच्छाका द्रव्य प्रधान है। अथवा डेढ़गुणहानिसे गुणित उत्कृष्ट समयप्रबद्धको स्थापित करके उसमें, तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित अपकर्षण भागहारको कुछ कम करके उसका भाग देनेपर प्रकृत स्वामित्वसे सम्बन्ध रखनेवाला द्रव्य आता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये। तथा इसी प्रकार आगे भी सर्वत्र कथन करना चाहिये। अब जिनका स्यामी इसीके समान है और जिनके स्वामीका जान इसीसे हो जाता है ऐसे र संक्रमणसे झीन स्थितिवालोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र आया है * तथा वही उत्कर्षण और संक्रमणसे उत्कृष्ट झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। $ ४८६. इस सूत्रका अर्थ अवगतप्राय है। अब उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेके लिये पृच्छासूत्र कहते है * उदयसे झीन स्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है । १. "मिच्छत्तस्स उकस्सयो पदेस उदयो कस्स ।"-धव० श्रा०प० १०६५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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