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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३२१ स तथोच्यते । उवसमसम्मत्तं पच्छायरिय गहिदवेदयसम्मत्तस्स पढमसमए असंखेज्जलोयपडिभाएण उदयावलियभंतरे णिसित्तदव्वं घेत्तूण सम्मत्तस्स अप्पियसामित्तमिदि वुत्तं होइ । सेसपरूवणाए मिच्छत्तभंगो। 8 ५४६. संपहि जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्से त्ति आसंकाणिवारणहमुत्तरसुत्तमोइण्णं * तस्सेव प्रावलियवेदयसम्माइहिस्स जहएणयमुदयादो झीणहिदियं । ५४७. तस्सेव पुन्विल्लसामियस्स आवलियमेत्तकालं वेदयसम्मत्ताणुपालणेण आवलियवेदयसम्माइडिववएसमुव्वहंतस्स पयदजहण्णसामित्तं होइ। एत्थ पढमसमयवेदयसम्माइद्विपरिहारेण उदयावलियचरिमसमए सामित्तविहाणे पुव्वं व कारणं परूवेयव्यं । इसका अर्थ है जिसने उपशमसम्यक्त्वको पीछे कर दिया है वह जो उपशमसम्यक्त्वको त्याग कर वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदयावलिके भीतर प्राप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा सम्यक्त्वका विवक्षित स्वामित्व होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शेष सब कथन मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ-जब उपशमसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यक्त्वके कालको समाप्त करके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तब वह अपने प्रथम समयमें ही सम्यक्त्व प्रकृतिका अपकर्षण करके उससे अन्तरकालको भर देता है । यद्यपि इस प्रकार अन्तरकालके भीतर अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है तथापि यहाँ पूर्व संचित द्रव्य नहीं रहनेसे यह द्रव्य अति थोड़ा है, इसलिये ऐसे जीवको ही सम्यक्व प्रकृतिकी अपेक्षा अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कहा है। यहाँ पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि उपशमसम्यग्दृष्टिको मिथ्यात्वमें ले जाकर जयन्य स्वामी क्यों नहीं कहा; क्योंकि वहाँ वेदक सम्यग्दृष्टिसे कम द्रव्यका अपकर्षण होता है। पर बात यह है कि जिस प्रकृतिका उदय होता है उदय समयसे लेकर अपकर्षित द्रव्यका निक्षेप उसी प्रकृतिका होता है। किन्तु मिथ्यात्व गुणस्थानमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होता नहीं, इसलिये ऐसे जीवके मिथ्यात्वमें एक आवलि कालतक उदयावलिप्रमाण निषेक ही सम्भव नहीं, अतः जघन्य स्वामित्व मिथ्यात्वमें न बतला कर वेदक सम्यक्त्वके प्रथम समयमें बतलाया है। ५४६. अब उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है इम आशंकाके निवारण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * वही वेदक सम्यग्दृष्टि जीव एक आवलि कालके अन्तमें उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। ६५४७. एक आवलिप्रमाण कालतक वेदकसम्यक्त्वका पालन करनेसे 'आवलिक वेदकसम्यग्दृष्टि' इस संज्ञाको प्राप्त हुए उसी पूर्वोक्त जीवके प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है। यहाँ प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिका परिहार करके जो उदयावलिके अन्तिम समयमें स्वामित्वका विधान किया है सो इसका पहलेके समान कारण कहना चाहिये। विशेषार्थ जैसे मिथ्यात्वका उदयकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामित्व उदयावलिके अन्तिम समयमें कहा है उसी प्रकार प्रकृतमें जानना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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