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________________ ३२० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ होदि । मिच्छाइहिपढमसमयप्पहुडि पडिसमयमणंतगुणं संकिलेसमावूरिय समयूणावलियमेत्तकालमहियारहिदीए णिसिंचमाणदव्वस्स समयणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो असंखेजगुणहीणत्तादो पढमसमयमिच्छाइद्विपरिहारेणावलियमिच्छाइहिम्मि सामित्तं दिण्णं, अण्णहा पढमसमयम्मि चेव सामित्तप्पसंगादो । कुदो एदं परिच्छिज्जदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। * सम्मत्तस्स जहणणयमोकडणादितिरह पि झीपहिदियं कस्स ? $ ५४४. सुगमं । 8 उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स प्रोकड्डणादो उक्कडणादो संकमणादो च झीणहिदियं । ५४५. पढमसमयवेदयसम्माइहिस्स पयदसामित्तं होइ ति सुत्तत्थसंबंधो । किमविसिहस्स ? नेत्याह उवसमसम्मत्तपच्छायदस्स उपशमसम्यक्त्वं पश्चात्कृतं येन प्रथम समयसे लेकर प्रत्येक समयमें अनन्तगुणे संक्लेशको प्राप्त करके एक समय कम आवलिप्रमाण कालतक अधिकृत स्थितिमें जो द्रव्य प्राप्त होता है वह एक समय कम आवलिप्रमाणगोपुच्छाविशेषोंसे असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये प्रथमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टिको छोड़कर एक श्रावलि कालतक रहे मिथ्यादृष्टिके जघन्य स्वामित्व कहा है। अन्यथा प्रथम समयमें ही जघन्य स्वामित्वका प्रसंग प्राप्त हो जाता। शंका-जिसे मिथ्यात्व प्राप्त हुए एक आवलि काल हुआ है उसे जघन्य स्वामित्व प्राप्त होता है यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना। विशेषार्थ-यद्यपि जो जीव उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर और छह आवलि कालतक सासादन गुणस्थानमें रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके पहले समयमें ही मिथ्यात्वका उदय हो जाता है परन्तु इस समय जो उदयगत द्रव्य है उससे एक आवलिकालके अन्तमें उदयमें आनेवाला द्रव्य न्यून होता है। इसीसे उद्यसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके समयसे लेकर एक आवलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेपर उसके अन्तिम समयमें कहा है। ___ * सम्यक्त्वके अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य कर्म परमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६५५४. यह सूत्र सुगम है। * जो उपशमसम्यक्त्वसे वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समयमें वह अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमणसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। ६५४५. प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रकृत स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। क्या सामान्यसे सभी प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टियोंके जघन्य स्वामित्व होता है ? नहीं, बस इसी बातके बतलानेके लिये 'उपशमसम्मत्तपच्छायदस्स' यह पद कहा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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