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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३१९ ६५४२. संपहि जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं कस्से त्ति आसंकाए णिरायरणहमिदमाह * उदयादो जहएणयं झीणहिदियं तस्सेव प्रावलियमिच्छादिहिस्स । ५४३. तस्सेव उवसामयस्स उवसमसम्मत्तदाए छ आवलियाओ अत्थि त्ति आसाणं गंतूण संकिलेसेण वोलाविदसगदस्स मिच्छत्तमुवणमिय पढमसमयमिच्छादिहिआदिकमेण आवलियमिच्छादिहिभावेणावद्विदस्स जहण्णयमुदयादो झीणहिदियं वाले कर्मपरमाणुओंके जघन्य स्वामित्वका विचार किया जा रहा है। उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु इन तीनोंके अयोग्य हैं यह तो पहले ही बतला आये हैं। अब यहाँ यह देखना है कि उदयावलिके भीतर मिथ्यात्वके कमसे कम कर्मपरमाणु कहाँ प्राप्त होते हैं । उपशमसम्यक्त्वके कालसे अन्तरकाल संख्यातगुणा बड़ा होता है ऐसा नियम है, अतः ऐसा जीव जब उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्व गुणस्थानमें आता है तो उसे वहाँ मिथ्यात्वका अपकर्षण करके अन्तरकालके भीतर फिरसे निषेक रचना करनी पड़ती है, इसलिये यहाँ उदयावलिमें पूर्व संचित द्रव्य न होनेसे वह कमती प्राप्त होता है । यद्यपि ऐसे जीवके संक्लेशरूप परिणाम तो होते हैं पर यह जीव उपशमसम्यक्त्वके कालको समाप्त करके मिथ्यात्वमें गया है इसलिये इसके संक्लेशरूप परिणामोंकी उत्कृष्टता नहीं प्राप्त हो सकती है और संक्लेशरूप परिणामोंकी जितनी न्यूनता रहेगी कर्मपरमाणुओंका उतना ही अधिक अपकर्षण होगा ऐसा नियम है, अतः इस प्रकार जो जीव सीधा उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके भी अपकर्षण आदि तीनोंके अयोग्य मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य नहीं पाया जाता है। इसीसे चूर्णिसूत्रकारने इसे छह आवलि काल शेष रहने पर पहले सासादन गुणस्थानमें उत्पन्न कराया है और फिर मिथ्यात्वमें ले गये हैं। ऐसे जीवके संक्लेशकी अधिकता रहनेसे मिथ्यात्वके प्रथम समयमें बहुत कम मिथ्यात्वके कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण होता है। ऐसा जीव गुणितकमांश भी हो सकता है और क्षपितकर्माश भी, क्योंकि एक तो अन्तरकालके भीतर द्रव्य नहीं रहता, दूसरे इन दोनोंके उपशमसम्यक्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें पहुँचने तक समान परिणाम रहते हैं, अतः इन दोनोंके ही द्वितीय स्थितिमें स्थित द्रव्यमें महान् अन्तर रहते हुए भी मिथ्यात्वके प्रथम समयमें समान द्रव्यका अपकर्षण होता है। इसलिये अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंका जघन्य स्वामित्व ऐसे ही प्रथम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके कहना चाहिये जो उपशमसम्यक्त्वसे च्युत होकर छह आवलि कालतक सासादन गुणस्थानमें रहा है और फिर वहाँसे मिथ्यात्वमें गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । ६५४२. अब उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है इस आशंकाके निराकरण करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * वही मिथ्यादृष्टि जीव एक आवलि कालके अन्तमें उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। ६५४३. वही उपशामक उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलि कालके रहने पर सासादनमें जाकर और संक्लेशके साथ सासादनके कालको बिताकर जब मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहाँ प्रथम समयसे लेकर एक आवलि कालतक मिथ्यात्वरूप परिणामोंके साथ अवस्थित रहता है तब वह उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है। मिथ्यादृष्टिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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