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गा० २२ ]
पाबहुअपरूपणा
च गुणगारो एत्थ पहाणो विसोहिपरिणामाइसयवसेण । गुणसे ढिमाहप्पं कुदो
परिच्छिनदे १
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए
सम्मत्तुष्पत्ती वि य सावयविरए अणंतकम्मंसे । - दसरा मोह व कसायउवसामए य उवसंते ॥१॥ खवय खीणमोहे जिणे य यिमा भवे असंखेजा । तव्विवरीदो कालो संखेज्जगुणा य सेढीए ||२|| ॥२॥ इदि पदम्हादो गाहासुत्तादो ।
* अपचक्खाणमाणे जहणपदेस तकम्ममस खेज्जगुणं ।
म-सम्मत्त
$ २१८. कुदो ? खविदकम्मं सियलक्खणेण अग्रवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मं काऊण पुणो तसेसु पलिदो ० असंखे ० भागमेत्तकालं संजमासंजम - संजम-: परिणमणवारेहि बहुकम्म पुग्गलगालणं काऊण चत्तारि वारे कसाए उपसामेयूण पुणो वि एइदिएसुत्रवज्जिय पलिदो० असंखे ० भागमेत्तकालेण कम्मं हदसमुप्पत्तियं काऊण समयाविरोहेण मणुसेसुत्रवज्जिय देमूण पुव्यको डिमेत कालं संजमगुणसेडिणिज्जरं काऊण कदासेसकरणिज्जो होतॄण तो मुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्वए चारितमोहक्खवणाए अन्भुद्विय अणियहिअद्धाए संखेज्जेसु भागेषु गदेसु अहकसायचरिमफालिं परसरूवेण संहिय उदयावलियपविद्वगो बुच्छाओ गालिय हिदजीवम्मि पुव्यमपरिभमिदवेळा हिसागरोत्रमम्मि एगणिसेगे दुसमयकाल हिदिगे सेसे
पत्तजहण्णभावस्स
है । और विशुद्धिरूप परिणामों के अतिशयवश यह गुणकार यहाँपर प्रधान है । शंका- गुणश्रेणिका माहात्म्य किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- सम्यक्त्वोत्पत्ति, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी कषायको विसंयोजना करनेवाला, दर्शन मोहका क्षपक, चारित्रमोहका उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह और जिन इन स्थानोंमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है । परन्तु उस निजरा में लगनेवाला काल उससे विपरीत अर्थात् अन्तके स्थानसे प्रथम स्थानतक प्रत्येक स्थानमें संख्यातगुणा संख्यातगुणा है ॥१-२॥ इसप्रकार इन गाथासूत्रोंसे गुणश्रेणिका माहात्म्य जाना जाता है ॥१-२॥ * उससे अप्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है ।
$ २१८. क्योंकि क्षपितकर्मा शविधिसे अभव्यों के योग्य जघन्य सत्कर्म करके पुनः त्रसों में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वरूप परिणमण बारोंके द्वारा कर्म के बहुत पुद्गलोंको गलाकर तथा चार बार कषायोंका उपशमन करके अनन्तर पुनः एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पल्यके असंख्तातवें भागप्रमाण कालके द्वारा कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके यथाशास्त्र मनुष्योंमें उत्पन्न होकर कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण काल तक संयम गुणश्रेणिनिर्जरा करके पूरी तरह कृतकृत्य होकर सिद्ध होनेके लिए अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर चारित्रमोहनी की क्षपण के लिए उद्यत होकर अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यात बहुभाग जानेपर आठ कषायोंकी अन्तिम फालिको पररूपसे संक्रमण करके तथा उदद्यावलिमें प्रविष्ट हुई गोपुच्छाओंको गलाकर जो जीव स्थित है वह मिध्यात्व का जघन्य द्रव्य करनेवालेके समान दो छयासठ सागर
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