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________________ میں ہے --....Mirrrrrrrrrrrrrrr-winnar..." ११० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एदस्स पुवित्रजहण्णदबादो गालिदवेछावहिसागरोवममेत्तणिसैगादो असंखेजगुणत्तस्स णायसिद्धत्तादो । गुणगारो पुण ओकड्ड कड्डणभागहारगुणिदवेछावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणं अण्णोण्णब्भत्थरासीदो दसण-चरितमोहक्खवयचरिमफालिविसेसमासेज असंखेजगुणो ति घेत्तव्यो, विगिदिगोवुच्छाणं तहाभावदंसणादो । गुणसेढिपाहम्मेण पुण तप्पाओग्गंपलिदोवमासंखेजभागमेतो पहाणगुणगारो साहेयव्यो, तत्थ परिणामाणुसारिगुणगारं मोत्तण दव्याणुसारिगुणगाराणुवलंभादो। ॐ कोहे जहएणपदेससंतकम्म विसेसाहियं । ६२१६. कथमेदेसि समाणसामियाणं हीणाहियभावो ? ण, दुकमाणकाले चेव पयडिबिसेसेण तहासरूवेण हुकमाणुवलंभादो । विसेसपमाणमेत्थ सुगमं । * मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६ २२०. एत्य कारणमणंतरपरूविदतादो सुगम ।। लोभे जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहिय।। २२१ कारणपरूवणं सुगमं । ॐ पञ्चक्खाणमाणे जहएणपदेसस तकम्मं विसेसाहियं । काल तक परिभ्रमण नहीं करता, इसलिए उसके दो समय कालवाली एक स्थितिके शेष रहने पर जो जघन्य द्रव्य होता है वह दो छयासठ सागर कालप्रमाण निषेकोंको गलाकर प्राप्त हुए मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है यह न्यायसिद्ध बात है। परन्तु गुणकार अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरप्रमाण नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे दर्शनमोहनीय और चरित्रमोहनीयके क्षपककी अन्तिम फालि विशेषको देखते हुए असंख्यातगुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि विकृतिगोपुच्छाएं उस प्रकारकी देखी जाती हैं। परन्तु गुणश्रेणिकी मुख्यतासे तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रधान गुणकार साध लेना चाहिए, क्योंकि वहांपर परिणामानुसारी गुणकारको छोड़कर द्रव्यानुसारी गुणकार उपलब्ध होता है। * उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२१६ शंका--समान स्वामीवाले इन कर्मों में हीनाधिक भाव कैसे होता है ? समाधान--नहीं, क्योंकि सञ्चय होते समय ही प्रकृतिविशेष होनेके कारण उस रूपसे इनका सञ्चय होता है। विशेष प्रमाण यहाँ पर सुमम है। * उससे अप्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२२०. यहाँ पर कारण सुगम है, क्योंकि उसका अनन्तर पूर्व ही कथन कर आये हैं। * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २२१. कारणका कथन सुगम है। * उससे प्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। १. प्रा०प्रतौ '-पाहम्मेण तप्पागोग्ग-' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ 'दुकवलंभादो' इति पाउ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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