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________________ १८८ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भावो १ ण, खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुववज्जिय अणंताणुबंधि विसंजोएयूण पुणो अंतोमुहुत्तसंजुत्तावत्थाए सेसकसायदव्वं दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धादो उक्कड्डिदमेत्तमधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थेयखंडपमाणं तदसंखेजदिभागत्तणेण अप्पहाणीकयणवकबंधमणंताणुबंधिसरूवेण परिणमाविय सम्मत्तलाभेण वेछावडीओ गालिय विसंजोयणाए दुचरिमसमयहिदजीवम्मि पत्तजहण्णभावस्स अणंताणुबंधिलोभदव्बस्स अधापवत्तभागहारेण विणा जहण्णभावमुवगयमिच्छत्तजहण्णपदेससंतकम्मादो असंखेजगुणहीणत्तस्स गाइयत्तादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारादो असंखेजगुणो । कथं मूलदव्वादो मूलदव्चस्स अधापवत्तभागहारे गुणगारे संते तं मोत्तण तत्तो असंखेज्जगुणतं गुणगारस्स ? ण, अणंताणु०विसंजोयणाचरिमफालीदो दंसणमोहक्खवणचरिमफालीए असंखेज्जगुणहीणत्तेण तहाभावं पडि विरोहाभावादो । ण च चरिमफालीणं तहाभावो असिद्धो, जहण्णहिदिसंकमप्पाबहुअसुत्तबलेण तस्सिद्धीदो। एसो विगिदिगोपुच्छागुणगारो वुत्तो। समुदायगुणगारो पुण तप्पाओग्गो पलिदो० असंखे०भागमेत्तो, पुचिल्लगुणसेढिगोवुच्छादो एत्थतणगुणसेढिगोवुच्छाए दंसणमोहक्खवगपरिणामपाहम्मेण तावदिगुणत्तुवलंभादो । एसो MAHANA nanMAN समाधान--नहीं, क्योंकि जिस जीवने क्षपितकांशिक विधिसे आकर और देवोंमें उत्पन्न होकर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है। पुनः जिसने अन्तर्मुहूर्त काल तक उसकी संयुक्तावस्थामें रहते हुए डेढ़ गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबलद्धमेंसे उत्कषणको प्राप्त हुए द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण शेष कषायोंके द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमाया है । यद्यपि यहाँ पर उस एक भागका असंख्यातवां भाग नवकबन्धका द्रव्य भी अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणत होता है पर उसकी प्रधानता नहीं है । उसके बाद जो सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छयासठ सागर काल तक उक्त द्रव्यको गलाते हुए विसंयोजनाके द्विचरम समयमें स्थित है उसके जघन्य भावको प्राप्त हुआ अनन्तानुबन्धी लोभका द्रव्य अधःप्रवृत्तभागहारके बिना जघन्य भावको प्राप्त हुए मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे असंख्यातगुणा हीन होता है यह बात न्याय है । यहाँ पर गुणकार अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणा है । शंका-मूल द्रव्यसे मूल द्रव्यका अधःप्रवृत्तभागहार रूप गुणकार रहते हुए उसे छोड़कर गुणकार उससे असंख्यातगुणा कैसे है ? समाधान नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाकी अन्तिम फालिसे दर्शनमोहक्षपणाकी अन्तिम फालि असंख्यातगुणी हीन होनसे गुणकारके उस प्रकारके होनेमें कोई विरोध नहीं आता। और अन्तिम फालियोंका उस प्रकारका होना प्रसिद्ध है यह बात भी नहीं है, क्योंकि जघन्य स्थितिसंक्रमके अल्पबहुत्वका कथन करनेवाले सूत्रके बलसे उसकी सिद्धि होती है। यह विकृतिगोपुच्छाका गुणकार कहा है। समुदायरूप गुणकार तो तत्प्रायोग्य पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि पहलेकी गुणश्रेणि गोपुच्छासे यहाँकी गुणश्रेणि गोपुच्छा दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवोंके परिणामोंकी प्रधानतावश उतनी गुणी उपलब्ध होती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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