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________________ ३०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सवेदस्सेव तहाभावोवयारादो । एसो अत्थो पुरिस-णqसयवेदसामित्तमुत्तेमु वि जोजेयव्यो, विसेसाभावादो। पुव्वविहाणेण गंतूण सव्वलहुँ खवणाए अब्भुट्टिय सोदएण इत्थिवेदं संछुहमाणयस्स विदियहिदीए चरिमहिदिखंडयपमाणेणावहिदाए पढमहिदीए च आवलियमेत्तीए गुणसे ढिसरूवेणावसिहाए तिण्णि वि झीणहिदियाणि उक्कस्सयाणि होति त्ति सुत्तत्थसंगहो। ५१६. संपहि पुचिल्लपुच्छासुत्तविसईकयमुक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियसामित्तमुत्तरमुत्तेण भणइ * उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियं चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स । ५२०. तस्सेव समयूणावलियमेतद्विदीओ गालिय हिदस्स जाधे पढमहिदीए चरिमणिसेश्रो उदिण्णो ताधे तस्स चरिमसमयइत्थिवेदक्खवयस्स उक्कस्सयमुदयादो झीणहिदियमिदि सुत्तत्थसंबंधो । . ॐ पुरिसवेदस्स उक्कस्सयमोकड्डणादिचदुण्हं पि झीणहिदियं ५२१. सुगमं । समयवर्ती सवेदीके ही स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिका अभाव उपचारसे मान लिया है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदके स्वामित्वविषयक सूत्रों का कथन करते समय भी इसी अर्थकी योजना कर लेनी चाहिये, क्योंकि इससे उनमें कोई विशेषता नहीं है। ___ जो कोई एक जीव पूर्वविधिसे आकर और अतिशीघ्र क्षपणाके लिये उद्यत होकर स्वोदयसे स्त्रीवेदका पतन कर रहा है उसके द्वितीय स्थितिमें अन्तिम स्थितिकाण्डकके शेष रहनेपर तथा प्रथम स्थितिमें एक आवलिप्रमाण गुणश्रेणिके अवस्थित रहनेपर तीनों ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु उत्कृष्ट होते हैं यह इस सूत्रका अमिप्राय है। ६५१६. अब जिसका पिछले पृच्छासूत्र में उल्लेख कर आये हैं ऐसे उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंके स्वामित्वका कथन अगले सूत्रद्वारा करते हैं___* तथा स्त्रीवेदका क्षपक जीव अपने अन्तिम समयमें उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी है। - ५२२. एक समय कम प्रावलिप्रमाण स्थितियोंको गलाकर स्थित हुए उसी जीवके जब प्रथम स्थितिका अन्तिम निषेक उदयको प्राप्त होता है तब अन्तिम समयवर्ती वह स्त्रीवेदी क्षपक जीव उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका अभिप्राय है। * पुरुषवेदके अपकर्षण आदि चारोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट कर्मपरमाणुओंका स्वामी कौन है ? ६५२१. यह सूत्र सुगम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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