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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूषणा * मायासंजलणे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । $ २२६. दोण्हं पि मोहणीयस्स अद्धपमाणसे संते कुदो पुचिन्लादो एदस्स विसेसाहियत्तं ? ण, पयडिविसेसेण पुव्विल्लदव्वमावलि० असंखे०भागेण खंडिय तत्थेयखंडमेत्तेण एदस्स अहियत्तुवलंभादो । ॐ णवुसयवेदे जहएणपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं । ६२३०. एत्य कारणं वुच्चदे । तं जहा-मायासंजलणस्स चरिमसमयणवकबंधो दुसमयूणदोआवलियमेत्तदाणमुवरि गंतूण एगसमयपबद्धस्स असंखेजा भागा होदूण जहण्णपदेससंतकम्मं जादं । गqसयवेदस्स पुण असंखेजपंचिंदियसमयपबद्धसंजुत्तगुणसेढिदव्वं जहण्णं जादं । तदो किंचूणसमयपबद्ध मेत्तजहण्णदव्वादो असंखेजसमयपबद्धपमाणणqसयवेदजहण्णपदेससंतकम्ममसंखेजगुणं होदि ति ण एत्थ संदेहो । * इत्थिवेदस्स जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ६२३१. कुदो सरिसपरिणामेहि कयगुणसेढीणं दोण्हं पि सरिसत्ते संतेणवंसयवेदपयडिविगिदिगोवुच्छाहिंतो इत्थिवेदपयडिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तादो। तं पि तीसरे भागप्रमाण मान संज्वलनके द्रव्यसे मोहनीयका आधा पुरुषवेदका द्रव्य दूसरा भाग अधिक होता है। * उससे माया संज्वलनमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२२६. शंका--पुरुषवेद और मायासंज्वलन इन दोनोंको ही मोहनीयका आधा आधा प्रमाण प्राप्त है फिर पहलेसे यह विशेष अधिक क्यों है ? समाधान--नहीं, क्योंकि प्रकृतिविशेषके कारण इसमें विशेष अधिक द्रव्य पाया जाता है । पुरुषवेदके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना इसमें विशेष अधिक है। * उससे नपुसकवेदमें जघन्य प्रदेशसत्कमे असंख्यातगुणा है। ६२३०. अब यहाँ इसका कारण कहते हैं। जो इस प्रकार है-माया संज्वलनका जो अन्तिम समयका नवक बन्ध है वह दो समय कम दो अवलिप्रमाण स्थान आगे जाकर एक समयप्रबद्धका असंख्यात बहुभाग प्रमाण रह जाता है और वही जघन्य प्रदेशसत्कर्मरूप होता है। किन्तु नपुंसकवेदका पञ्चन्द्रियके असंख्यात समयप्रबद्वोंसे संयुक्त गुणश्रेणीका द्रव्य जघन्य प्रदेशसत्कर्मरूप होता है, इसलिए कुछ कम समयप्रबद्धप्रमाण माया संज्वलनके जघन्य द्रव्यसे असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है इसमें कोई सन्देह नहीं। * उससे स्त्रीवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६२३१. क्योंकि यद्यपि दोनोंकी गुणश्रेणियाँ सदृश परिणामोंसे की जाती हैं, इसलिये वे समान हैं तो भी नपुंसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंसे स्त्रीवेदकी प्रकृति और विवृति गोपुच्छाएं असंख्यातगुणी होती हैं। १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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