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________________ murarmarrrrrrrrrram wwww wwwwwwwwwwwwirmw - - गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा २४१ सचरिमसमयादो उवरि तेसिमोकड्डणादिपाओग्गभावेण पडिणिययकालपडिबदाए ओकड्डणादीणमणागमणपइज्जाए अणुवलंभादो। एदेण सासणसम्माइहिम्मि दंसणतियस्स उक्कड्डणादीहितो झीणहिदियत्तसंभव विप्पडिवत्ती णिराकरिया, तत्थ घि सव्वकालमणागमणपइज्जाए अभावादो । एत्य मिच्छत्तादिपयडिबिसेसणिद्दे सं काऊण परूवणा किमह' ण कीरदे ? ण, विसेसविवक्खमकाऊण मूलुतरपयडीणं साहारणसरूवेण अपदस्स परूवणादो। ण च सामण्णे परूविदे विसेसा अपरूविदा णाम. तेसि ततो पुधभूदाणमणुवलंभादो। तदो एत्थ पादेवकं सवपयडीणमेसा अहपदपरूवणा वित्थररुइसिस्साणुग्गहह कायव्वा । के अन्तिम समयके बाद अनिवृत्तिकरणमें अपकर्षणा आदिके योग्य हो जाते हैं और तब फिर उनकी अपकर्षणा आदिको नहीं प्राप्त होनेकी जो प्रतिनियत काल तककी प्रतिज्ञा है वह भी नहीं रहती। इस कथनसे सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी स्थितिकी उत्कर्षणा आदि सम्भव नहीं होनेसे जो विप्रतिपत्ति उत्पन्न होती है उसका भी निराकरण कर दिया, क्योंकि उनमें भी उत्कर्पण आदिके नहीं होनेकी प्रतिज्ञा सदा नहीं पाई जाती। शंका-इस सूत्रमें मिथ्यात्व आदि प्रकृतिविशेषका निर्देश करके कथन क्यों नहीं किया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यहाँ विशेष कथनकी विवक्षा न करके जो मूल और उत्तर प्रकृतियोंमें साधारण है ऐसे अर्थपदका निर्देश किया है और सामान्यकी प्ररूपणामें विशेषकी प्ररूपणा अप्ररूपित नहीं रहती, क्योंकि विशेष सामान्यसे पृथक् नहीं पाये जाते । किन्तु जो शिष्य विस्तारसे समझनेकी रुचि रखते हैं उनके उपकारके लिए यही अर्थपद प्ररूपणा सब प्रकृतियोंकी पृथक् पृथक् करनी चाहिये। विशेषार्थ-यहाँपर यह बतलाया है कि कौन कर्मपरमाणु अपकर्षणके अयोग्य हैं और कौन कर्मपरमाण अपकर्षणके योग्य हैं। एक ऐसा नियम है कि उदयावलिके भीतर स्थित कमपरमाणु सकल करणोंके अयोग्य होते हैं । अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण, उत्कर्षण और संक्रमण श्रादि कुछ भी सम्भव नहीं है, उनका स्वमुख से या परमुखसे केवल उदय ही होता है, इसलिए इस परसे यह निष्कर्ष निकला कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणके अयोग्य हैं, हाँ उदयावलिके बाहर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं उनका अपकर्षण अवश्य हो सकता है। इसीलिए चूर्णिसूत्रकारने अपकर्षणके विषयमें यह नियम बनाया है कि उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। तब भी यह प्रश्न तो है ही कि उदयावलिके बाहर स्थित सब कर्मपरमाणु अपकर्षणके योग्य ही होते हैं ऐसा एकान्त नियम तो किया नहीं जा सकता, क्योंकि उदयावलिके बाहर स्थित जिन कर्मपरमाणुओंकी अप्रशस्त उपशम, निधत्तीकरण और निकाचनाकरण ये अवस्थाएँ हैं उनका अपकर्षण नहीं होता। इसीप्रकार सासादन गुणस्थानमें भी दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंका अपकर्षण नहीं होता, इसलिये चूर्णिसूत्रकारने जो यह कहा है कि उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है सो उनका ऐसा कथन . ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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