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________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसवित्ती ५ ४२५. संपहि उक्कड्डणादो झीणहिदियं सपडिवक्वं परूवयमाणो मुत्तयारो पुच्छामुत्तेण पत्यावमारभेइ * उकाडुणादो झीणहिदियं णाम किं ? ४२६. एत्य उक्कड्डणादो अज्झीणहिदियं णाम किमिदि वक्कसेसो कायव्वो। सेसं सुगमं । एवं पुच्छिदत्यविसर णिण्णयजणणहमुत्तरमुत्तकलावं भणइ 8 जं ताव उदयावलियपवितं ताव उकडूणावो झीणहिदियं । $ ४२७. कुदो एदस्स उदयावलियपविहस्स उक्कड़डणादो झीणहिदियत्तं ? सहावदो। को एत्थ सहावो णाम ? अच्चंताभावो । एदमेवमप्पवण्णणिज्जितादो करना उचित नहीं है। इस प्रश्नका जो समाधान किया गया है उसका भाव यह है कि जो कर्मपरमाणु अप्रशस्त उपशामना, निधत्तीकरण या निकाचनाकरण अवस्थाको प्राप्त हैं उनकी वह अवस्था सदा नहीं बनी रहती है। किन्तु अनिवृत्तिकरणमें जाकर वह समाप्त हो जाती है और पहले जिनका अपकर्षण नहीं होता रहा अब उनका अपकर्षण होने लगता है। इसी प्रकार सासादनगुणस्थानका काल निकल जानेपर सासादनमें जिनका अपकर्षण नहीं होता रहा उनका तदनन्तर अपकर्षण होने लगता है, इसलिये उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंको निरपवादरूपसे अपकर्षणके अयोग्य कहनेमें कोई आपत्ति नहीं है। यहां पर एक शंका और उठाई गई है कि अपकर्षण के योग्य और अयोग्य कर्मपरमाणुओंका कथन करते समय कर्म विशेषका निर्देश क्यों नहीं किया। अर्थात् यह क्यों नहीं बतलाया कि इस प्रकारकी अवस्था मोहनीयके किन किन कर्मों में पैदा होती है। इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यहां जो सामान्य नियम बांधा गया है वह निरपवादरूपसे सब कर्मों में सम्भव है, इसलिये उसका प्रत्येक कर्मकी अपेक्षासे कयन नहीं किया है। तथापि जो शिष्य विस्तारसे समझना चाहते हैं उनके लिये इसी नियमका प्रत्येक कर्मकी अपेक्षासे कथन करनेमें कोई आपत्ति नहीं है। ६४२५. अब चूर्णिसूत्रकार अपने प्रतिपक्षभूत कर्मपरमाणुओंके साथ उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके कथन करनेकी इच्छासे पृच्छासूत्रद्वारा उसके कथन करनेका प्रस्ताव करते हैं * वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। ६ ४२६. इस सूत्रमें 'वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो उत्कर्षणसे अझीन स्थितिवाले हैं। इतना वाक्य और जोड़ देना चाहिये । शेष कथन सुगम है। इस प्रकार पूछे गये अर्थक विषयमें निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रकलापको कहते हैं * जो कर्म उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। ६ ४२७. शंका-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले क्यों हैं ? 'समाधान-स्वभावसे। शंका-यहाँ स्वभावसे क्या अभिप्रेत है ? समाधान-अत्यन्ताभाव । अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंमें उत्कर्षण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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