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________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ $ ४२४. एत्थ जं कम्ममिदि वुत्ते जो कम्मपदेसो त्ति घेत्तव्वं । उदयावलिया त्ति उदयसमयप्पहुडि आवलियमेतहिदीणमुत्तावलियायारेण हिदाणं सण्णा । कुदो ! उदयसहस्स उवलक्खणभावेण ठविदत्तादो । तदभंतरे द्विदं जं पदेसग्गं तमोकड्डणादो झीणहिदिगं । ण एदस्स हिदीए ओकड्डणमत्थि ति भावत्थो । कुदो ? सहावदो । एरिसो एदस्स सहावो ति कतो णव्वदे ? एदम्हादो चेव मुत्तादो। जं पुण उदयावलियबाहिरे हिदं पदेसग्गं तमोकड्डणादो अज्झीणहिदिगमिदि एदेण सुत्तावयवेण उदयावलियबाहिरासेसहिदिहिदपदेसग्गं सबमोकड्डणापाओग्गमिदि वुत्तं होदि । एत्थ चोदओ भगदि-उदयावलियबाहिरे वि ओकड्डणादो ज्झीणहिदियमप्पसत्थउवसामणा-णिवत्तीकरण-णिकाचणाकरणेहि अत्थि चेव जाव दंसणचरित्तमोहक्खवगुवसामयअपुवकरणचरिमसमओ त्ति तदो किं वुच्चदे उदयावलियबाहिरहिदिहिदपदेसग्गमोकड्डणादो अज्झीणहिदियमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-जिस्से हिदीए पदेसग्गस्स ओकडणा अच्चंतं ण संभवइ सा हिंदी ओकड्डणादो झीणा वुच्चइ, तिस्से अच्चताभावेण पडिग्गहियत्तादो। ण च णिकाचिदपरमाणणमेवंविहो णियमो अस्थि, अपुवकरण 5 ४२४. यहाँ सूत्रमें जो 'जं कम्म' ऐसा कहा है सो उससे 'जो कर्मपरमाणु' ऐसा अर्थ लेना चाहिये । जो उदय समयसे लेकर आवलिप्रमाण स्थितियाँ मुक्तावलिके समान स्थित हैं उनकी उदयावलि यह संज्ञा है, क्योंकि ये सब स्थितियाँ उपलक्षणरूपसे उदयप्राप्त स्थितिके साथ स्थापित हैं। इस उदयावलिके भीतर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। इस उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका अपकर्षण नहीं होता यह इस सूत्रका भाव है। शंका–उदयावलिप्रमाण स्थितियोंका अपकर्षण क्यों नहीं होता ? समाधान-क्योंकि ऐसा स्वभाव है। शंका-इसका ऐसा स्वभाव है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है। किन्तु जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं। इसप्रकार सूत्रके इस दूसरे वाक्यद्वारा यह कहा गया है कि उदयावलिके बाहर समस्त स्थितियोंमें स्थित जितने कर्मपरमाणु हैं वे सब अपकर्षणके योग्य हैं। शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि उदयावलिके बाहर भी अप्रशस्त उपशामना, निधत्तीकरण और निकाचनाकरणके सम्बन्धसे ऐसे कर्मपरमाणु बच रहते हैं जो अपकर्षणके अयोग्य हैं। और उनकी यह अयोग्यता दर्शनमोहनीय या चरित्रमोहनीयकी क्षपणा या उपशमना करनेवाले जीवके अपूर्वकरणके अन्तिम समय तक बनी रहती है, तब फिर यह क्यों कहा जाता है कि उद्यावलिके बाहरकी स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणु अपकर्षणके योग्य हैं। समाधान-जिस स्थितिके कर्मपरमाणुओंकी अपकर्षणा बिलकुल ही सम्भव नहीं, केवल वही स्थिति यहाँ अपकर्षणके अयोग्य कही गई है, क्योंकि यहाँ ऐसे कर्मपरमाणुओंकी अपकर्षणाका निषेध किया है जो किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है। किन्तु निकाचित आदि अवस्थाको प्राप्त हुए कर्मपरमाणुओंका ऐसा नियम तो है नहीं, क्योंकि वे कर्मपरमाणु अपूर्वकरण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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