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________________ २३६ गा० २२] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए परूवणा ४२२. संपहि समुक्त्तिणाणियोगद्दारेण समुक्कित्तिदाणमेदेसि सरूत्रविसयणिण्णयजणण परवणाणिओगद्दारं परूवयमाणो जहा उद्देसो तहा णिसो त्ति णाएण पहिलमेव ताव भोकड्डणादो झीणहिदियं सपडिवक्खमासंकामुत्तेण पत्तावसरं करेदि * भोकडणाको झीणहिदियं णाम किं ? १४२३. अत्थि प्रोकड्डणादो झीणहिदिगमिदि पुव्वं समुक्कित्तिदं । तत्य कदममोकड्डणादो झीणहिदियं ? किमविसेसेण सवहिदिद्विदपदेसग्गमाहो अत्थि को वि विसेसो ति एसो एदस्स भावत्थो। एवमासंकिय तबिसेसपरूवणमुत्तरसुत्तं भणइ ( जं कम्ममुदयावलियम्भंतरे हियं तमोकडुणावो झीणहिदियं । जमुदयावलियबाहिरे द्विदं तमोकणादो अज्झीणहिदियं । विशेषार्थ-झीनाझीन अधिकारका समुत्कीर्तना, प्ररूपणा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व इन चार उपअधिकारों द्वारा वर्णन किया गया है। इन चारोंका अर्थ स्पष्ट है। यहाँ सर्वप्रथम समुत्कीर्तनाका निर्देश करते हुए चूर्णिसूत्रकारने यह बतलाया है कि मोहनीयकी सब प्रकृतियोंमें ऐसे बहुतसे कर्मपरमाणु हैं जो यथासम्भव अपकर्षण, उत्कर्षण, संक्रमण और उदयके अयोग्य हैं। तथा बहुतसे ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जो यथासम्भव इनके योग्य भी हैं। यहाँ सूत्रमें यद्यपि सूत्रकारने अपर्षण आदिके अयोग्य परमाणुओंके होनेकी सूचना की है तथापि इस अधिकारका नाम झीनाझीन होनेसे यह भी सूचित हो जाता है कि बहुतसे ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षण आदिके योग्य भी हैं। यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६४२२. अब समुत्कीर्तना अनुयोगद्वारके द्वारा कहे गये इनके स्वरूप विषयक निर्णयका ज्ञान करानेके लिए प्ररूपणा अनुयोगद्वारका कथन करते हैं। उसमें भी उद्देश्यके अनुसार निर्देश किया जाता है इस न्यायके अनुसार सर्वप्रथम आंशकासूत्रद्वारा अपने प्रतिपक्षभूत कर्मके साथ अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मके कथन करनेकी सूचना करते हैं * वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। ६४२३. अपकर्षणसे झीन (रहित ) स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं यह पहले कह आये हैं। अब इस विषयमें यह प्रश्न है कि वे कौनसे कर्मपरमाणु हैं जो अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं। क्या सामान्यसे सब स्थितियोंमें स्थित कर्मपरमाणु ऐसे हैं या कुछ विशेषता है यह इस सूत्रका भाव है। ऐसी आशंका कर अब उस विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले हैं और जो कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अमीन स्थितिवाले हैं। अर्थात् उदयावलिके भीतर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण नहीं होता किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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