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________________ २३८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सव्वकम्माणमत्थि। अहवा ओकड्डणादो झीणा परिहीणा जा हिदी तं गच्छदि त्ति ओकड्डणादो झीणहिदियमिदि समासो कायव्यो । एवमुवरि सव्वत्थ । दहरहिदिहिदपदेसग्गाणं हिदीए परिणामविसेंसेण वड्डावणमुक्कड्डणा णाम । तत्तो झीणा हिदी जस्स तं पदेसग्गं सव्वपयडीणमत्थि । संकमादो समयाविरोहेण एयपयडिहिदिपदेसाणं अण्णपयडिसरूवेण परिणमणलक्खणादो झीणा हिदी जस्स तं पि पदेसग्गमत्थि सव्वेसि कम्माणं । उदयादो कम्माणं फलप्पदाणलक्खणादो झीणा हिदी जस्स पदेसग्गस्स तं च सव्वकम्माणमत्थि ति । एत्थ सुत्तसमत्तीए 'चेदि सद्दो किमटुं ण पवुत्तो ? ण, मुत्तमेत्तियमेत्तं चेव ण होदि, किंतु अण्णं पि अज्झाहरिजमाणमत्थि । तदो तस्स समत्तीए 'चेदि सद्दो अज्झाहारेयव्वो चि जाणावणटुं वक्कपरिसमत्तीए अकरणादो । किं तमझाहारिज्जमाणं सुत्तसेसमिदि चे वुच्चदे-ओकडणादो अझीणहिदियं उक्कड्डणादो अझीणहिदियं संकमणादो अझीणहिदियं उदयादो अझीणहिदियं चेदि त्ति । कथमेदमण्णहा झीणाझीणाणं पख्वयमुत्तं हवेज्ज । सुत्ते पुण एसो अज्झाहारो सामस्थियलद्धो त्ति ण णिहिटो । सब कर्मों में सम्भव है। अथवा 'झीणहिदियं' का संस्कृतरूप 'झीनस्थितिगं' भी होता है। इसलिये ऐसा समास करना चाहिए कि जो कर्म परमाणु अपकर्षणसे रहित स्थितिको प्राप्त हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। इसीप्रकार आगे सर्वत्र सब पदोंका दो प्रकारसे कथन करना चाहिये। उक्कडणादो झोट्ठदियं-परिणाम विशेषके कारण अल्पस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंकी स्थितिका बढ़ाना उत्कर्षणा है । सब प्रकृतियोंमें ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति उत्कर्षणके अयोग्य है। ___ संकमणादो झीणट्ठिदियं--जैसा आगममें बतलाया है तदनुसार एक प्रकृतिके स्थितिगत कर्मपरमाणुओंका अन्य सजातीय प्रकृतिरूप परिणमना संक्रमण है। सब कर्मों में ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति संक्रमणके अयोग्य है, इसलिये वे संक्रमणसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। उदयादो झीणहिदियं-कर्मों का फल देना उदय है। सब कर्मों में ऐसे भी कर्मपरमाणु हैं जिनकी स्थिति उदयके अयोग्य है, इसलिये वे उदयसे झीन स्थितिवाले कर्मपरमाणु हैं। शंका-यहाँ सूत्रके अन्तमें 'चेदि' शब्द क्यों नहीं रखा ? समाधान नहीं, क्योंकि सूत्र केवल इतना ही नहीं है किन्तु और भी अध्याहार करने योग्य है और तब जाकर उस अध्याहृत वाक्यके अन्तमें 'चेदि' शब्दका अध्याहार करना चाहिये । इसप्रकार यह बात बतलानेके लिए सूत्रवाक्यको समाप्त न करके यों ही छोड़ दिया है। शंका-सूत्रका वह कौनसा अंश शेष है जो अध्याहार करने योग्य है ? समाधान-'ओकडणादो अझीणहिदियं उकडणादो अझीणहिदियं संकमणादो अझीणहिदियं उदयादो अझीणहिदियं चेदि' यह वाक्य है जो अध्याहार करने योग्य है। यदि ऐसा न माना जाय तो यह सूत्र झीनाझीन दोनोंका प्ररूपक कैसे हो सकता है। तथापि इतना अध्याहार सामथ्र्यलभ्य है, इसलिये इसका सूत्रमें निर्देश नहीं किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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