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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३३७ णिग्गलिदा त्ति । जाव संजदेण कदा गुणसेढी णिरवसेसं गलिदा ताव असंजदो होऊणच्छिदो त्ति वुत्तं होइ। ण चेदं णिरत्थयं, गुणसेढिगोवुच्छाओ असंखेजपंचिंदियसमयपबद्धपमाणाओ गालिय अइसण्हगोवुच्छाणं सामित्तविसईकरणेण फलोवलंभादो । एवमसंजदभावेण गुणसेढिं णिग्गालिय पुणो केत्तिएण वावारेण जहण्णसामित्तं पडिवज्जइ ति । एत्युत्तरमाह-तदो संजमं पडिवज्जियण इच्चाइणा । तदो असंजमादो संजमं पडिवज्जिय सव्वणिरुद्धणंतोमुहुत्तेण कम्मरवयं काहिदि त्ति अवहिदस्स तस्स पढमसमयसंजमं पडिवण्णस्स जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ त्ति सुतत्थसंबधो। संजदविदियादिसमएसु किम सामित्तं ण दिजदे १ ण, संजमगुणपाहम्मेण पुणो वि उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ताए गुणसेढीए उदयावलियम्भंतरप्पवेसे जहण्णताणुववत्तीदो। तम्हा एत्तिएण पयत्तेण सण्हीकयसमयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ घेत्तूण संजदपढमसमए पयदजहण्णसामित्तं होइ त्ति मुत्तत्यसमुच्चयो । एत्थ सिस्सो भणदि-एदम्हादो समयूणावलियमेत्तगोवुच्छदव्वादो जहण्णयमण्णमोकड्डणादिझीणहिदियं पेच्छामो। तं कधमिदि भणिदे एसो चेव रहता है जब तक गुणश्रेणि निर्जीर्ण होती है। जब तक संयतके द्वारा की गई गुणश्रेणि पूरी गलती है तब तक यह जीव असंयत होकर रहता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यदि कहा जाय कि यह सब कथन करना निरर्थक है सो भी बात नहीं है, क्योंकि पश्चन्द्रियोंके असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको गलाकर प्रकृत स्वामित्वकी विषयभूत अतिसूक्ष्म गोपुच्छाओंके करने रूपसे इसका फल पाया जाता है। इस प्रकार असंयतरूप भावके द्वारा गुणश्रेणिको गला कर फिर कितनी प्रवृत्ति करके जघन्य स्वामित्वको प्राप्त होता है ? आगे यही बतलानेके लिये 'तदो संजमं पडिवज्जियूण' इत्यादि कहा है। आशय यह है कि फिर असंयमसे संयमको प्राप्त हुआ । इस बार संयमको तब प्राप्त कराना चाहिए जब और सब विधिके साथ कर्मक्षयको अन्तर्मुहूर्त में करनेकी स्थितिमें आ जाय। इस प्रकार संयमको प्राप्त होकर जो उसके प्रथम समयमें स्थित है वह अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा झीनस्थितिवाले जघन्य नपुंसकवेदसम्बन्धी कर्मपरमाणुओंका स्वामी होता है यह इस सूत्रका आशय है । शंका-संयत होनेसे लेकर दूसरे आदि समयोंमें यह जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया गया है ? समाधान-नहीं, क्योंकि संयमगुणकी प्रधानतासे फिर भी उद्यावलिके बाहर जो गुणश्रेणिकी रचना हुई है उसके उदयावलिके भीतर प्रवेश करने पर जघन्यपना नहीं बन सकता है। इसलिये इतने प्रयत्नसे सूक्ष्म की गई एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण गोपुच्छाओंको लेकर संयतके प्रथम समयमें प्रकृत जघन्य स्वामित्व होता है यह इस सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है। शंका-यहाँ कोई शिष्य कहता है कि यह जो एक समय कम एक श्रावलिप्रमाण गोपुच्छा द्रव्य है इससे हम अपकर्षणादि तीनकी अपेक्षा मीनस्थितिवाला अन्य जघन्य द्रव्य देखते हैं वह कैसे ऐसा पूछने पर वह बोलता है कि क्षपितकाशकी विधिसे भ्रमण करके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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