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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअपरूपणा १२६ तत्थ सोदएण साभित्तविहाणटुं वेछावडीओ भमाडिय मिच्छत्तढोवणादो तेसिमेव जहण्णसामित्तमादेसपडिबद्धं विदियउवएसावलंबणेण पयट्ट, तत्थ तदणुसारेणेवप्पाबहुअपरूवणुवलंभादो । तम्हा अहिप्पायभेदमिममासेज्ज सव्वत्थ मुत्ताणमविरोहो घडावेयव्वो त्ति ण किंचि दुग्घर्ड पेच्छामो। तदो सिद्धमायाणुसारिवयावलंबिसामित्तावलंबणेणाणताणुबंधिलोभादो मिच्छत्तमसंखेजगुणमिदि । एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारो पुवमुत्ते वि उव्वेल्लण०णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीदो असंखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्बो, हेहिमरासिणा उवरिमरासिम्मि भागे हिदे तहोवलंभादो । * अपचक्खामाणे जहण्णपदेससंतकम्मस खेजगणं । २७२. एत्थ गुणगारो वेछावहिसागरोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीदो असंखे०गुणो। कोधे जहएणपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । * मायाए जहण्णपदेससंतकम्मं विसेसाहियं । ॐ लोभे जहण्णपद ससंतकम्म विसेसाहियं । $ २७३. एदाणि मुत्ताणि सुटु सुगमाणि । है। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका ओघ जघन्य स्वामित्व भी उसीके अनुसार प्रवृत्त हुआ है। उनमेंसे स्वोदयसे स्वामित्वका कथन करनेके लिए दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कराकर मिथ्यात्वका संक्रमण हो जानेसे उन्हींका आदेशप्रतिबद्ध जघन्य स्वामित्व द्वितीय उपदेशका अवलम्बन लेकर प्रवृत्त हुआ है, क्योंकि वहां पर उसीके अनुसार ही अल्पबहुत्वका कथन उपलब्ध होता है, इसलिए इस भिन्न अभिप्रायका आश्रय लेकर सर्वत्र सूत्रोंमें अविरोध स्थापित कर लेना चाहिए, इसलिए हम कुछ भी दुर्घट नहीं देखते हैं। इसलिए सिद्ध हुआ कि आयके अनुसार व्ययका अवलम्बन लेनेवाले स्वामित्वका अवलम्बन लेनेसे अनन्तानुषन्धी लोभसे मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यतगुणा है। यहां पर गुणकार अधःप्रवृत्तभागहार है जो पहलेके सूत्रमें भी उद्वेलन भागहारकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अधःस्तन राशिका उपरिम राशिमें भाग देने पर उसकी उपलब्धि होती है। * उससे अप्रत्याख्यान मानमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म असंख्यातगुणा है। $ २७२. यहाँ पर गुणकार दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे असंख्यातगुणा है। * उससे अप्रत्याख्यान क्रोधमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान मायामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। * उससे अप्रत्याख्यान लोभमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म विशेष अधिक है। ६ २७३. ये सूत्र अत्यन्त सुगम हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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