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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं . १७३ मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४-इत्थि०-णवूस. अत्थि उक० हाणी। णवरि सम्म०-सम्मामि० बडीए वि संभवो दीसइ, उवसमसेढीए कालं कादूण तत्थुप्पएणउवसमसम्मादिहिम्मि दोण्हमेदेखि कम्माणं वडिदंसणादो। एदमेत्थ ण विवक्खियमिदि णेदव्वं । हस्स-रइ-अरइ-सोगाणमत्थि उक्क० वड्डी हाणी च । बारसक०पुरिस०-भय दुगुंछा० ओघं । एवं जाव अणाहारि त्ति। एवं जहण्णयं पिणेदव्वं, विसेसाभावादो। ३४४. सामित्तं दुविहं-जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसोओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद. जो हदसमुप्पत्तियकम्मंसिओ कम्मं क्खवेहदि ति विवरीदं गंतूण सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णो सबलहुँ सव्वाहिं पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो उकस्ससंकिलेसमुक्कस्सगं च जोगं गदो तस्स उक्कस्सिया बडी। तस्सेव से काले उकस्सयमवहाणं । वरि तप्पाओग्गजहण्णसंतकम्मिओ खरिदकम्मंसिओ आणेदव्यो, बंधाणुसारेणेदमुक्कस्सबडिसामित्तं पयट्ट', अण्णहा पुण गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंदूण विवरीयभावेण सम्पत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पूरेदण तदो मिच्छत्तं गयस्स पढमसमए पयदसामित्तेण होदव्वं, तत्थासंखेजाणं गुणिदसमयपबद्धाणमधापवत्तेण मिच्छत्तस्सुवरि परिवट्टिदसणादो। उक्क० अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी उत्कृष्ट हानि है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी वृद्धि भी सम्भव दिखलाई देती है, क्योंकि उपशमश्रेणिमें मरण करके वहाँ उत्पन्न हुए उपशमसम्यग्दृष्टि जीवमें इन दो कर्मों की वृद्धि देखी जाती है। किन्तु यह यहाँ पर विवक्षित नहीं है ऐसा जानना चाहिए। हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। तथा उत्कृष्टके समान जघन्य भी जानना चाहिए, क्योंकि उत्कृष्टसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार समुत्कीर्तना समाप्त हुई। ६ ३४४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर हतसमुत्पत्तिक कांशिक जीव कर्मका क्षपण करेगा किन्तु विपरीत जाकर सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हो और अति शीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो उत्कृष्ट संक्लेश और उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुआ उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इतनी विशेषता है कि तत्प्रायोग्य जघन्य सत्कर्मवाले क्षपितकांशिक जीवको लाना चाहिए। बन्धके अनुसार यह उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामित्व प्रवृत्त हुआ है, अन्यथा गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर विपरीत भावसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर अनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त होने पर उसके प्रथम समयमें प्रकृत स्वामित्व होना चाहिए, क्योंकि वहां पर असंख्यात गुणित समयप्रबद्धोंकी अधःप्रवृत्तभागाहारके द्वारा मिथ्यात्बके ऊपर वृद्धि देखी जाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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