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________________ १७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ समप्पणा एदेण कदा होइ । संपहि एदेण सुत्तेण समप्पिदत्थविवरणमुच्चारणवलेण कस्सामो। तं जहा–उत्तरपयडिपदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगदाराणिसमुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुए ति। ३४२. तत्थ समुक्त्तिणा दुविहा—जहण्णा उक्कस्सा। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक-पुरिस-भय-दु० अत्थि उक्कस्सिया वड्डी हाणी अवहाणं च । सम्मत्त-सम्मामि० इत्थि-णqस०-हस्सरइ-अरइ-सोगाणं अत्थि उक. वडी हाणी च । णवरि एत्थावद्विदस्स वि संभवो अस्थि, सासणसम्माइहिम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तदुबलंभादो । सेसाणं पि उवसमसेढीए सव्योवसामणम्मि तदुवलंभसंभवादो । तमेत्थ ण विवक्खियमिदि णेदव्वं । अदो चेव उपरिमो अप्पणागंथो सुसंबद्धो। एवं सबणेरइय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्ख३-मणुस ३-देवा जाव उपरिमगेवज्जा त्ति । ६३४३. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छ०-सोलसक०-भय-दुगुंछा० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवहाणं च । सम्म०-सम्मामि० अस्थि उक्क० हाणी। सत्तणोक० अत्थि उक्क. बड्डी हाणी च । एवं मणुसअपज्ज० । अणुद्दिसादि जाव सव्वहा त्ति अनुसार यहाँ करनी चाहिए इसप्रकार इस सूत्र द्वारा अर्थका समर्पण किया गया है। अब इस सूत्र द्वारा समर्पित किए गये अर्थका विवरण उच्चारणाके बलसे करते हैं । यथाउत्तरप्रकृतिपदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं - समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । .६३४२. समुत्कीर्तना दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट हानि है। इतनी विशेषता है कि यहाँ पर अवस्थितपद भी सम्भव है, क्योंकि सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अवस्थितपद उपलब्ध होता है। तथा शेष प्रकृतियोंका भी अवस्थितपद उपशमशेणिमें सर्वोपशामना होने पर उपलब्ध होता है। परन्तु वह यहाँ पर विवक्षित नहीं है ऐसा जानना चाहिए और इसीलिए उपरिम अर्पणा ग्रन्थ सुसम्बद्ध है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, देव और उपरिम वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। ३४३. पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें भिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि है। सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि और हानि है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। १. ता.प्रतौ 'उक० हाणी । [ सत्तणोक० अस्थि उक्क हाणी ] सत्तणोक०' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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