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________________ २४६ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 एवं गंतूण जदि वि जहरिणयाए आवाहाए अणिया कम्महिदी विदिक्कंता तं पि उक्कड्डणादो झीणहिदियं । ___ ४३४. एवं तिसमयाहियावलियादिपरिहीणकम्महिदिं समाणिय द्विदिपदेसग्गाणमुक्कड्डणादो झीणहिदियतं वत्तव्वं, अइच्छावणाए पडिवुण्णत्ताभावेण णिक्खेवस्स च अच्चंताभावेण पुचिल्लादो विसेसाभावा । 'एवं गंतूण जइ वि जहणियाए. झीणहिदिगं' इदि एत्थ चरिमवियप्पे जइ वि अइच्छावणा संपुण्णा तो वि णिक्खेवाभावेण झीणहिदियत्तं पडिवज्जेयव्वं । सेसं सुगम । विशेषार्थ-पहले यह बतलाया गया है कि जिन कर्मपरमाणुओंकी कर्मस्थिति उदयावलि से केवल एक समय अधिक शेष है उनका उत्कर्षण नहीं होता। तब यह प्रश्न हुआ कि जिस समयप्रबद्धकी कर्मस्थिति दो समय अधिक एक आवलिप्रमाण शेष है उसी समयप्रबद्धके एक समय अधिक उदयावलिके अन्तिम समयमें स्थित कर्मपरमाणुओंका अनन्तरवर्ती उपरितन स्थितिमें उत्कर्षण होता है क्या ? इसी प्रश्नका उत्तर देते हुए यहां यह बतलाया गया है कि तब भी भव नहीं है। इसका यहां पर जो कारण बतलाया है उसका आशय यह है कि उत्कर्षण बन्धके समय ही होता है। फिर भी उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप अतिस्थापना प्रमाण स्थितिको छोड़कर ऊपरकी स्थितिमें ही होता है और प्रकृतमें अतिस्थापना जघन्य आबाधासे कम तो हो ही नहीं सकती, क्योंकि आबाधाकालके भीतर नवीन बंधे हुए कर्मोंकी निषेक रचना न होनेसे श्राबाधाकालके भीतर उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका निक्षेप ही सम्भव नहीं है। यह माना कि आबाधाकालके भीतर सत्तामें स्थित कर्मोंकी निषेक रचना पाई जाती है, किन्तु 'बन्धके समय ही उत्कर्षण होता है। ऐसा कथन करनेसे यह निष्कर्ष निकलता है कि उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका निक्षेप तत्काल बंधनेवाले कर्मके निषेकों में ही होता है। पर यह निषेक रचना आबाधाकालके भीतर नहीं पाई जाती, इसलिये आबाधा निक्षेपके अयोग्य है यह सिद्ध होता है। इस प्रकार उदयावलिके अनन्तर समयवती कर्म परमाणुओंका उदयावलिके अनन्तर द्वितीय समयवर्ती स्थितिमें निक्षेप नहीं हो सकता यह सिद्ध होता है और यही प्रकृत सूत्रका आशय है। * इस प्रकार जाकर यद्यपि विवक्षित कर्म परमाणुओंकी जघन्य आबाधासे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो भी वे कर्म परमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं। ६४३४. तीन समय अधिक एक आवलिसे न्यून शेष सब कर्मस्थितिको समाप्त करके स्थित हुए कर्म परमाणु भी उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये, क्योंकि अतिस्थापना पूरी न होनेसे और निक्षेपका अत्यन्त प्रभाव होनेसे पूर्व सूत्रके कथनसे इसमें कोई विशेषता नहीं है। 'इस प्रकार जाकर यद्यपि जघन्य आबाधासे न्यून कर्मस्थिति व्यतीत हो गई है तो भी वे कर्मपरमाणु उत्कर्षणसे झीन स्थितिवाले होते हैं। इस प्रकार इस अन्तिम विकल्पमें यद्यपि अतिस्थापना पूरी है तो भी निक्षेपका अभाव होनेसे ( एक समय अधिक एक आवलिके अन्तिम समयवती कर्म परमाणुओंका) उत्कर्षणसे झीन स्थितिपना जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है। विशेषार्थ-पहले उदाहरणरूपसे जो एक समय अधिक उद्यावलिके अन्तिम समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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