SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 375
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तस्य व्यापारविशेषप्रतिपादनार्थमाह-अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो इत्यादि । अत्रान्तर्मुहूर्तमपर्याप्तकाले संक्लेशोत्कर्षस्यासम्भवात्पर्याप्तकालविषयः संक्लेशोत्कर्षः प्ररूपितः । तथा परिणतः किंभयोजनमित्याशंक्याह-तदो इत्यादि । तदो तम्हा संकिलेसादो हेउभूदादो वियड्डिदाओ सव्वेसिं कम्माणं द्विदीओ अंतोकोडाकोडिमेत्तहिदिबंधादो वि दूरमुक्कड्डिय दीहाबाहाए पबद्धाओ त्ति भणिदं होइ । जाधे एवमुक्कस्सओ संकिलेसो आरिदो ताधे चेव उक्कड्डणाकमेण चिराणसंतकम्मपदेसा बज्झमाणणवकबंधुकस्सहिदीए उवरि उक्कड्डिय णिक्खित्ता, हिदिबंधस्सेव उक्कड्डणाए वि तदण्णयवदिरेयाणुविहाणत्तादो। ण च उक्कड्डणाबहुत्ताविणाभावी उक्कस्साबाहापडिबद्धो उक्कस्सओ द्विदिबंधो णिरत्थओ, णिरुद्धद्विदिपदेसाणमुक्कड्डणाए विणा सण्हीभावाणुप्पत्तीदो । एसो सव्यो वि वावारविसेसो अहियारहिदिमाबाहाब्भंतरे पवेसिय संकिलेसपरिणदपढमसमए परूविदो। तदो पहुडि अंतोमुहुत्तद्धमुक्कस्समित्थिवेदस्स हिदि बंधियूग पडिभग्गा जादा त्ति । $ ५६६. एत्थतणउक्स्ससद्दो अंतोमुहुत्तद्धाए हिदीए च विसेसणभावेण संबंधेयव्यो। तेण सव्वुक्कस्समंतोमुत्तकालं संकिलेसमावृरिय पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तमित्थिवेदस्मुक्कस्सहिदि बंधिदूण एतियं कालमुक्कड्डणाए पयदणिसेयं जहण्णीहै। इस प्रकार जो जीव वैमानिक देवियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके व्यापारविशेषका कथन करनेके लिये 'अंतोमुहुत्तद्धमुववण्णो' इत्यादि कहा है। यहाँ अपर्याप्त कालके भीतर अन्तर्मुहूर्त तक संक्लेशका उत्कर्ष नहीं हो सकता, इसलिये पर्याप्त कालविषयक संक्लेशका उत्कर्ष कहा है। इस प्रकार संक्लेशरूपसे परिणत करानेका क्या प्रयोजन है ऐसी आशंका होने पर 'तदो' इत्यादि कहा है। आशय यह है कि इस संक्लेशके कारण सब कर्मों की स्थितियोंको बढ़ाया अर्थात् जिन कर्मोंका स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण हो रहा था उनका बड़े आबाधाके साथ बहुत अधिक स्थितिको बढ़ाकर बन्ध किया। और जब इस प्रकारका उत्कृष्ट संक्लेश हुआ तब उत्कर्षणके क्रमानुसार प्राचीन सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंको बंधनेवाले नवकबन्धकी उत्कृष्ट स्थितिके ऊपर उत्कर्षित करके निक्षिप्त किया, क्योंकि स्थितिबन्धके समान उत्कर्षणका भी संक्लेशके साथ अन्वय-व्यतिरेकसम्बन्ध पाया जाता है। यदि कहा जाय कि प्रकृतमें बहुत उत्कषणका अविनाभावी और उत्कृष्ट बाधासे सम्बन्ध रखनेवाला उत्कृष्ट स्थितिबन्ध निरर्थक है सो यह बात भी नहीं है, क्योंकि विवक्षित स्थितिके कर्मपरमाणु उत्कर्षणके बिना सूक्ष्म नहीं हो सकते, इसलिये बहुत उत्कर्षण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध दोनों सार्थक हैं। अधिकृत स्थितिको आबाधाके भीतर प्रवेश कराके संक्लेशसे परिणत हानेके प्रथम समयमें इस सब व्यापारविशेषका कथन किया है। फिर यहाँसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके फिर उसे उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त कराया है। ५६६. यहाँ सूत्रमें जो उत्कृष्ट शब्द आया है सो उसका अन्तर्मुहूर्त काल और स्थिति इन दोनोंके साथ विशेषणरूपसे सम्बन्ध करना चाहिये। इससे यह अर्थ लेना चाहिये कि सर्वोत्कृष्ट अन्तर्मुहुर्त काल तक संक्लेशको बढ़ाकर उसके द्वारा पन्द्रह कोडाकोड़ी सागरप्रमाण खीवेद्का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और इतने ही काल तक उत्कर्षण द्वारा प्रकृत निषेकको जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy