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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संकमो गत्थि १ सहावदो। एत्तिओ चेव संकमणादो झीणहिदिओ पदेसविसेसो ति जाणावणहमेदं मुत्तं । पत्थि अण्णो वियप्पो ति उदयावलियबाहिरहिदपदेसग्गं बंधावलियवदिक्कतं सव्वमेव संकमपाओग्गत्तेण तत्तो अझीणहिदियमिदि वुत्तं होइ ।
* उदयादो झीणहिदियं। ४७७. एतो उदयादो झीणहिदियं वुच्चइ ति अहियारसंभालणसुत्तमेदं । ॐ जमुहिएणं तं, णत्थि अण्णं ।
$ ४७८. एत्थ जमुद्दिण्णं दिण्णफलं होऊण तकालगलमाणं तमुदयादो झीणद्विदियमिदि मुत्तत्थसंबंधो । णत्थि अण्णं । कुदो ? सेसासेसहिदिपदेसग्गस्स कमेण उदयपाओग्गत्तदंसणादो।
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स्थितिवाला है, क्योंकि उदयावलिके भीतर संक्रमण नहीं होता ऐसा स्वभाव है। इतने ही कर्मपरमाणु संक्रमणसे झीनस्थितिवाले हैं यह जतानेके लिये यह सूत्र आया है। यहाँ इसके अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है। इसका यह अभिप्राय है कि बन्धावलिके सिवा उदयावलिके बाहर जितने भी कर्मपरमाणु स्थित हैं वे सब संक्रमणके योग्य हैं, इसलिये वे संक्रमणसे अझीनस्थितिवाले हैं।
विशेषार्थ-विवक्षित कर्मके परमाणुओंका सजातीय कर्मरूप हो जाना संक्रमण कहलाता है। यहाँ यह बतलाया है कि इस प्रकारका संक्रमण किन परमाणुओंका हो सकता है
और किनका नहीं। जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे सबके सब संक्रमणके अयोग्य हैं और उदयावलिके बाहर जो कर्मपरमाणु स्थित हैं वे सबके सब संक्रमणके योग्य हैं यह इसका भाव है। किन्तु इससे तत्काल बंधे हुए कर्मों का भी बन्धावलिके भीतर संक्रमण प्राप्त हुआ जो कि होता नहीं, इसलिये इसका निषेध करनेके लिये टीकामें इतना विशेष
और कहा है कि बन्धावलिके सिवा उदयावलिके बाहरके कर्मपरमाणुओंका संक्रमण होता है। अब यहाँ प्रश्न यह है कि ऐसे भी कर्म हैं जिनका उदयावलिके बाहर भी संक्रमण सम्भव नहीं । जैसे आयुकर्म । अतः यहाँ इनके संक्रमणका निषेध क्यों नहीं किया सो इसका यह समाधान है कि जिन कर्मों में संक्रमण सम्भव है उन्हींकी अपेक्षासे यहाँ विचार करके यह बतलाया है कि उनमेंसे किन कर्मपरमाणुओंका संक्रमण हो सकता है और किनका नहीं। आयु कम ऐसा है जिसका संक्रमण ही नहीं होता, अतः उसकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
* अब उदयसे झीनस्थितिक अधिकारका निर्देश करते हैं।
६४७७. संक्रमणसे झीनस्थितिक अधिकारका निर्देश करनेके बाद अब उदयसे झीनस्थितिक अधिकारका कथन करते हैं इस प्रकार यह सूत्र स्वतन्त्र अधिकारकी संम्हाल करनेके लिये आया है।
* जो कर्म उदीर्ण हो रहा है वह उदयसे झीनस्थितिवाला है। इसके अतिरिक्त यहाँ और कोई दूसरा विकल्प नहीं है।
६४७८. जो कर्म उदीर्ण हो रहा है अर्थात् फल देकर तत्काल गल रहा है वह उदयसे झीनस्थितिवाला है यह यहाँ इस सूत्रका अभिप्राय है। इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा विकल्प नहीं, क्योंकि बाकीकी सब स्थितियोंके कर्मपरमाणु क्रमसे उदयके योग्य देखे जाते हैं।
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