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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणाझीणचूलियाए सामित्तं २७५ ४७६. एवं सामण्णेण चउण्हं पि झीणहिदियाणं सपडिवक्रवाणममुपदपरूवणं काऊण संपहि एदेसि चेव विसेसिय परूवणमुत्तरसुत्तं भणइ * एत्तो एगेगझीणहिदियमुक्कस्सयमणुकस्सयं जहएणयमजहएणयं च। ६४८०. जहासंखणाएण विणा पादेक्कमेदेसि झीणहिदियाणमुक्कस्सादिपदेहि संबंधपरूवणफलो एगेगे त्ति णिद्देसो, अण्णहा समसंखाणमेदेसि तहाहिसंबंधप्पसंगादो। तदो तमेक्कक चउव्वियप्पसंजुतं णिदिसइ–उक्कस्सयमणुकस्सयं जहण्णयमजहण्णयं चेदि । जत्थ बहुवयरं पदेसग्गमोकड्डणादिचउण्डं पि झीणहिदियमुवलंभइ तमुक्कस्सं णाम । एवं सेसपदाणं वत्तव्वं । एवं परूवणा गदा । ॐ सामित्तं । विशेषार्थ—यहाँ यह बतलाया है कि कौनसे कर्मपरमाणु उदयसे झीनस्थितिवाले हैं और कौनसे कर्मपरमाणु उदयसे अझीनस्थितिवाले हैं। जिन कर्मपरमाणुओंका उदय हो रहा है उनका पुनः उदयमें आना सम्भव नहीं, इसलिये फल देकर तत्काल गलनेवाले कर्मपरमाणु उदयसे झीनस्थितिवाले हैं और इनके अतिरिक्त शेष सब कर्मपरमाणु उदयसे अभीनस्थितिवाले हैं यह इस सूत्रका भाव है। ४७६. इस प्रकार सामान्यसे अपने प्रतिपक्षभूत कर्मपरमाणुओंके साथ चारों ही झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणुओंके अर्थपदका कथन करके अब इन्हींकी विशेषताका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं-- * इनमेंसे प्रत्येक झीनस्थितिवाले कर्म उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य हैं। ६४८०. चार प्रकारके झीनस्थितिवाले कर्मों का क्रमसे उत्कृष्ट आदि चार पदोंके साथ सम्बन्ध नहीं है, इसलिये यथासंख्य न्यायके बिना अलग अलग इन झीनस्थितिवाले कर्मों का उत्कृष्ट आदि पदोंके साथ सम्बन्धका प्ररूपण करनेके लिये सूत्र में 'एगेग' पदका निर्देश किया है । नहीं तो दोनों ही समसंख्यावाले होनेसे दोनोंका यथाक्रमसे सम्बन्ध हो जाता। इसलिये यह सूत्र वे एक एक उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस प्रकार चार चार प्रकारके हैं इस बातका निर्देश करता है। जहाँ पर सर्वाधिक कर्मपरमाणु अपकर्षण आदि चारोंसे झीनस्थितिपनेको प्राप्त होते हैं वहाँ उत्कृष्ट विकल्प होता है। इसी प्रकार शेष पदोंका कथन करना चाहिये। विशेषार्थ-अपकर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु, उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु, संक्रमणसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु और उदयसे झीनस्थितिवाले कर्मपरमाणु ये चार है । ये चारों ही प्रत्येक उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य इस प्रकार चार चार प्रकारके हैं यह इस सूत्रका भाव है। इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई । * अब स्वामित्वका अधिकार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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