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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए झीणामीणचूलियाए सामित्तं ३४१ तप्पाओग्गउक्कस्सयं संकिलेसं गदो तस्स पढमसमयएइंदियस्स जहएणयमुदयादो झीणहिदियं । ६५६३. एत्थ मुहुमणिगोदेसु कम्महिदिमणुपालियूगे त्ति वुत्ते मुहुमवणप्फदिकाइएसु जो जीवो सव्वावासयविसुद्धो संतो कम्महिदिमणुपालियूणागदो त्ति घेत्तव्वं, अण्णहा खविदकम्मंसियत्तविरोहादो । एवमभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मं काऊण तसेसु आगदो। ण च तसपज्जायपरिणामो सुहुमणिगोदजोगादो असंखेज्जगुणजोगो वि संतो णिप्फलो ति जाणावण संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गदो इच्चादी भणिदं । संजमासंजमादिगुणसेढिणिज्जराए पडिसमयमसंखेजपंचिंदियसमयपबद्धपडिबद्धाए एइंदियसंचयस्स गालणेण फलोवलंभादो । ण च एत्थतणसंचयस्स जोगबहुत्तमासंकणिज्जं, तस्स वारं पडि संखेजावलियमेत्तवयादो असंखेज्जगुणहीणतणेण पाहणियाभावादो पुणो वि तस्स एइंदिएसु पलिदोवमासंखेज्जदिभागमेत्तकालेण गालणादो च। तदेवाह-तदो एइंदिए गदो इत्यादी । एत्थ जदि वि उवसामो णवूसयवेदं ण बंधइ, तो वि पुरिसवेदादीणं तत्थ बधसंभवादो तेसिं णवकबधस्स गालणहमेसो एईदिए पवेसिदो । ण तेसिं कम्मंसाणमुवसामयसमय प्रथम समयवर्ती एकेन्द्रिय जीव उदयसे झीनस्थितिवाले जघन्य द्रव्यका स्वामी है। ६५६३ यहाँ सूत्रमें जो 'सुहुमणिगोदेसु कम्मढिदिमणुपालियूण' कहा है सो इसका आशय यह है कि सब आवश्यकोंसे विशुद्ध होता हुआ जो जीव सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोंमें कर्म स्थितिप्रमाण काल तक रह कर बाहर आया है। अन्यथा उसे क्षपितकांश माननेमें विरोध श्राता है । इस प्रकार यह अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसोंमें उत्पन्न हुआ। यहि कहा जाय कि सूक्ष्म निगोदियोंके योगसे त्रसपर्यायमें प्राप्त होनेवाला योग असंख्यातगुणा होता है, इसलिये त्रसपर्यायका प्राप्त कराना निष्फल है सो यह बात भी नहीं है। बस इसी बातका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें 'संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो गदो' इत्यादि सूत्र वचन कहा है। प्रत्येक समयमें पंचेन्द्रियोंके असंख्यात समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध रखनेवाली संयमासंयम आदि सम्बन्धी गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा एकेन्द्रिय पर्यायमें हुए संचयको गला देता है। इस प्रकार त्रसपर्यायमें उत्पन्न होनेकी यह सफलता है। यदि कहा जाय कि इस त्रस पर्यायमें संचय होता है वह योगकी बहुतायत के कारण बहुत होता है सो ऐसी आशंका करनी भी ठीक नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जो प्रत्येक बार संख्यात आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंका उदय होता है उससे वह असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये प्रकृतमें उसकी प्रधानता नहीं है। दूसरे फिरसे एकेन्द्रियों में जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा उसे गला देता है। इसकार इसी बातके बतलानेके लिये सूत्र में 'तदो एइंदिए गदो' इत्यादि वाक्य कहा है। यहाँ पर यद्यपि उपशामक जीव नपुंसकवेदका बन्ध नहीं करता है तो भी पुरुषवेदादिकका वहाँ बन्ध सम्भव होनेसे इनके नवकबन्धके गालन करनेके लिये इसे एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न कराया है। यदि कहा जाय कि वे कर्मपरमाणु उप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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