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________________ २५४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसवित्ती ५ हिदि सकमुक्कड्डिदुमिदि वत्तव्यं, उदयहिदीदो समयाहियउदयावलियमेत्तमदाणमुवरि गंतूण पयदणिसेयस्स अवहाणादो । एदस्स सुत्तस्स भावत्थो-उदयहिदीदो हेहा समयाहियावलियमेत्तमद्धाणमोयरिय बद्धसमयपबद्धप्पहुडि सेसासेसकम्महिदिअभंतरसंचिदसमयपबद्धपरमाणमहियारहिदीए अत्थित्ते विरोहो गत्थि तदो ण ते उक्कड्डणादो झीणहिदिया। उक्कड्डिजमाणा च ते जेचियमद्धाणं हेहदो प्रोयरिय बद्धा तेत्तियमेत्तेणियं कम्महिदिमाबाहामेत्तमविच्छाविय णवक धस्सुवरि णिक्खिप्पंति, तैत्तियमेत्तीए चेव सत्तिहिदीए अवसिहत्तादो त्ति । णवरि कम्महिदीए आदीदो पहुडि जहण्णाबाहमेत्ताणं समयपबद्धाणं जहासंभवमुक्कड्डणादो झीणहिदियत्तं पुबिल्लपरूवणादो जाणिय वत्तव्वं । ण पुचिल्लपरूवणादो एदिस्से णवकबधमस्सियूण पयट्टाए अवत्थु-वत्थुपरूवणाए अविसिहत्तमासंकणिज, तिस्से कम्महिदीए आदीदो पहुडि पुव्वाणुपुवीए संतकम्ममस्सियूग वावदत्तादो, एदिस्से चेव णवक धमस्सियूग पच्छाणुपुवीए पयत्तादो । पढमपरूवणाए संतकम्ममस्सियूण आवलियमेत्ता अवत्थुवियप्पा किण्ण परूविदा ? तं जहा-सत्तरिसागरोवमकोटाकोडिमेत्तकम्महिदि सव्वं गालिय पुणो से काले जिल्लेविहिदि ति उदयहिदीए द्विदपदेसग्गदिस्से समयाहियावलियचरिमहिदीए अवत्थु । तिस्से चेव हिदीए तो दो समय अधिक दो श्रावलिसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण ही उत्कर्षण हो सकता है ऐसा यहाँ कथन करना चाहिये, क्योंकि उदय स्थितिसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान ऊपर जाकर ही प्रकृत निषेक स्थित है। इस सूत्रका यह भावार्थ है कि उदय स्थितिसे एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थान नीचे उतर कर जो समयप्रबद्ध बंधा है उससे लेकर बाकीकी सब कर्मस्थितिके भीतर संचित हुए समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका विवक्षित स्थितिमें अस्तित्व माननेमें कोई विरोध नहीं है, इसलिये वे उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले नहीं है। उत्कर्षण होते हुए भी जितना स्थान नीचे (पीछे) जाकर वे बँधे होते हैं उतने स्थानसे न्यून शेष रही कर्मस्थितिमें उनका उत्कर्षण होता है। उसमें भी आबाधाप्रमाण अतिस्थापनाको छोड़कर नवकबन्धमें इनका निक्षेप होता है। शेष रही कर्मस्थितिमें इनका उत्कर्षण इसलिए होता है कि उनकी उतनी ही शक्तिस्थिति शेष है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कर्मस्थितिके आदिसे लेकर जो जघन्य श्राबाधाप्रमाण समयप्रबद्ध हैं वे यथासम्भव उत्कर्षणसे झीनस्थितिवाले हैं यह कथन पहले की गई प्ररूपणासे जानकर करना चाहिये । यदि कहा जाय कि पूर्व प्ररूपणासे नककबन्धकी अपेक्षा अवस्तु और वस्तु विकल्पोंके कथनमें प्रवृत्त हुई इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह पूर्व प्ररूपणा कमस्थितिके प्रारम्भसे लेकर पूर्वानुपूर्वीसे सत्कर्मकी अपेक्षा प्रवृत्त हुई है और यह प्ररूपणा नवकबन्धकी अपेक्षा पश्चादानुपूर्वीसे प्रवृत्त हुई है, इसलिये इन दोनों प्ररूपणाओंमें अन्तर है। शंका-प्रथम प्ररूपणामें सत्कर्मकी अपेक्षा एक आवलिप्रमाण अवस्तुरूप विकल्पोंका कथन क्यों नहीं किया है ? जिनका खुलासा इस प्रकार है-सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण सब कर्मस्थितिको गलाकर फिर तदनन्तर समयमें उस कर्मस्थितिका अभाव होगा। इस प्रकार केवल उदय स्थितिमें स्थित उस कर्मस्थितिके कर्मपरमाणु इस एक समय अधिक आवलिकी अन्तिम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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