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________________ ઉપરે गा० २२] पदेसविहत्तीए मीणाझीणचूलियाए परूवणा पुव्वुत्तावलियमेत्तसमयपत्रद्धपरमाणणमत्थि, तेसि बंधावलियाए असमत्तीदो उकडणापाओग्गत्ताभावादो । समाणिदबंधावलियस्स वि तत्थतणचरिमवियप्पपडिग्गहियसमयपबद्धस्स उदयसमयमहिद्विदजीवेणोकड्डगावावदेण णिरुद्ध हिदिविसयमाणिदस्स संतस्स वि पयदुक्कड्डणाणुवजोगित्तेणावत्युत्तं पडिवज्जेयव्वं । तदो तेसिमेत्थाबत्युत्तमेदस्स च वत्युत्तं सिद्ध। ४४२. एवमादिहस्स पदेसग्गस्स उक्कड्डणाद्धाणपरूवणमुत्तरमुत्तेण कुणइ * तं पुण पदेसग्गं कम्महिदि यो सका उक्कडिएं, समयाहियाए श्रावलियाए अणियं कम्महिदि सका उक्कड्डिहूँ । १४४३. कुदो ? एत्तियमेत्तीए चेव सत्तिहिदीए अवहिदत्तादो । एदं जहिदि पडुच्च वुत्तं । णिसेहिदि पुण पडुच्च दुसमयाहियदोआवलियाहि ऊणियं कम्म किन्तु यह क्रम पूर्वोक्त श्रावलिप्रमाण समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणुओंका नहीं बनता, क्योंकि उनकी बन्धावलि समाप्त नहीं हुई है, इसलिये तब अपकर्षणकी योग्यता नहीं पाई जाती है । बन्धावलिके समाप्त हो जाने पर भी जो समयप्रबद्ध वहाँ अन्तिम विकल्परूपसे स्वीकृत है उसका उदय समयमें स्थित जीवके द्वारा अपकर्षण होकर वह यद्यपि निर्दिष्ट स्थितिके विषयभावको प्राप्त हो रहा है फिर भी प्रकृत उत्कर्षणके अयोग्य होनेसे वह अवस्तु है, इसलिये उसे छोड़ देना चाहिये। इसलिए उदय समयसे पूर्वकी एक आवलिके भीतर बंधनेवाले कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें नहीं हैं और जिन कर्मपरमाणुओंको बँधे हुए बन्ध समयसे लेकर उदय समय तक एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुई है वे कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें हैं यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-पहले यह बतला आये हैं कि प्रकृत स्थितिमें कितने समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु नहीं पाये जाते हैं। अब इस सूत्रद्वारा यह बतलाया गया है कि प्रकृत स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंको बँधे एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुआ है उनका पाया जाना सम्भव है। इसपर यह शंका हुई कि जब कि आबाधा कालके भीतर निषेक रचना नहीं होती और प्रकृत स्थिति आबाधा कालके भीतर पाई जाती है तब फिर इस स्थितिमें जिन कर्मपरमाणुओंको बंधे हुए एक समय अधिक एक प्रावलिकाल व्यतीत हुआ है उनका पाया जाना कैसे सम्भव है । इस शंकाका मूलमें जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि बन्धावलिके व्यतीत हो जाने पर बँधे हुए द्रव्यका अपकर्षण, उत्कर्षण. संक्रमण और उदीरणा हो सकती है, इसलिये एक समय अधिक एक श्रावलि पूर्व बँधा हुआ द्रव्य विवक्षित स्थितिमें पाया जाता है ऐसा माननेमें कोई बाधा नहीं आती। ६४४२. अब इस प्रकार विवक्षित हुए कर्मपरमाणुओंके उत्कर्षण अध्वानका कथन आगेके सूत्रद्वारा करते हैं * किन्तु उन कर्म परमाणुओंका कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण नहीं हो सकता । हाँ एक समय अधिक एक आवलिसे न्यून कर्मस्थितिप्रमाण उत्कर्षण हो सकता है । ६४४३. क्योंकि उन कर्मपरमाणुओंमें इतनीमात्र शक्तिस्थिति पाई जाती है। तथापि यह कथन यस्थितिकी अपेक्षासे किया है । निषेकस्थितिकी अपेक्षासे विचार करने पर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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