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________________ २५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ४४० एवमेदेण मुत्तेण आवलियमेत्ते अवत्थुवियप्पे परूविय संपहि उक्कड्डणपाओग्गवत्थुवियप्पपरूवणमुत्तरमुत्तं भणइ * तिस्से चेव हिदीए पदेसग्गस्स समयुत्तरावलिया बद्धस्स अइच्छिदा त्ति एसो आदेसो होज । ६४४१ एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे-तिस्से चेव पुव्वणिरुद्धसमयाहियावलियचरिमहिदीए पदेसग्गस्स उक्कस्सदो दोआवलियपरिहीणकम्महिदिमेत्तसमयपबद्धपडिबद्धस्स अभंतरे जस्स पदेसग्गस्स बंधसमयादो पहुडि उदयहिदीदो हेट्टा समयत्तरावलिया अधिच्छिदा सो एत्थ आदेसो होज । आदिश्यत इत्यादेशो विवक्षितस्थितौ वस्तुरूपेणावस्थितः प्रदेश आदेश इति यावत् । कथमेदस्स आबाहादो उपरि णिसित्तस्स आदिदृहिदीए संभवो १ ण, बंधावलियाए वोलीणाए एगेण समएणोकडिय पयदहिदीए णिक्वित्तस्स तत्थत्थित्तं पडि विरोहाभावादो। ण एस कमो आवलि तक पूर्वके बंधे हुए समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणोंका विवक्षित स्थितिमें अर्थात् एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थितिमें पाया जाना सम्भव नहीं है। यहां वर्तमान काल ही उदयकाल है और इससे लेकर एक आवलिकाल उदयावलि काल कहलाता है तथा इससे आगेकी स्थिति एक समय अधिक उदयावलिकी अन्तिम स्थिति कहलाती है। अब वर्तमान काल अर्थात् उदयकालमें विचार यह करना है कि उक्त स्थितिमें कितने समयप्रबद्धोंके कर्मपरमाणु नहीं पाये जाते । प्रकृत सूत्रमें इसी प्रश्नका उत्तर दिया गया है। उसका आशय यह है कि उदयकालसे पूर्व एक आवलि काल तकके बंधे हुए समयप्रबद्ध उक्त स्थितिमें नहीं पाये जाते, क्योंकि उक्त स्थिति आबाधाकालके भीतर आ जाती है और आबाधाकालमें निषेक रचना नहीं होती यह पहले ही लिख आये हैं। ६४४०. इस प्रकार इस सूत्र द्वारा आवलिप्रमाण अवस्तुरूप विकल्पोंका कथन करके अब उत्कर्षण के योग्य वस्तुरूप विकल्पोंका कथन करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु उसी स्थितिमें वे कर्म परमाणु हैं जिनकी बाँधनेके बाद एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हुई है। ४४१. अब इस सूत्र का अर्थ कहते हैं-उसी पूर्व निर्दिष्ट एक समय अधिक एक आवलिकी अन्तिम स्थितिमें जो कर्मपरमाणु हैं वे यद्यपि उत्कृष्ट रूपसे दो आवलिकम कर्म स्थितिप्रमाण समयप्रबद्धोंके हैं तथापि इनके भीतर जिन कर्मपरमाणुओंकी बन्ध समयसे लेकर उदय स्थितिसे पहले-पहले एक समय अधिक एक आवलि व्यतीत हो गई है उनका यहाँ सद्भाव है । आदेश का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-आदिश्यते अर्थात् विवक्षित स्थितिमें वास्तविक रूपसे अवस्थित प्रदेश। शंका—जब कि बन्धके समय सब कर्मपरमाणु श्राबाधासे ऊपरकी स्थितिमें निक्षिप्त किये जाते हैं तब वे विवक्षित स्थितिमें कैसे सम्भव हो सकते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि बन्धावलिके व्यतीत होनेके पश्चात् एक समय द्वारा अपकर्षण करके आबाधासे उपरितन स्थितिमें स्थित कर्मपरमाणु प्रकृत स्थितिमें निक्षिप्त कर दिये जाते हैं, इसलिये इनका वहाँ अस्तित्व मानने में कोई विरोध नहीं आता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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