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( ५ )
नरक के अन्तिम समय में होता है । मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी इसी प्रकार जानना चाहिए । जो गुणितकर्माशिक दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव जब मिध्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्व में संक्रमित करता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का स्वामी होता है । तथा जब वही जीव सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें संक्रमित करता है तब वह सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । नपुंसकवेद की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा गुणितकर्माशिक जीव होता है जो अन्तमें ईशान कल्प में उत्पन्न होकर उसके अन्तिम समय में स्थित है । स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र इसे अन्तमें असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न कराकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा स्त्रोवेदका पूरण कराकर प्राप्त करना चाहिए । जो गुणितकर्माशिक जीवक्रमसे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और पुरुषवेदको यथायोग्य पूरकर अन्तमें मनुष्यों में उत्पन्न होकर शीघ्र ही कर्मोंका क्षय करता हुआ जब स्त्रीवेदको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है तब पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब पुरुषवेदको क्रोधसंज्वलनमें संक्रमित करता है तब क्रोधसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब क्रोधसंज्वलनको मानसंज्वलन में संक्रमित करता है तब मानसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । वही जीव जब मानसंज्वलनको मायासंज्वलन में संक्रमित करता है तब मायासंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है और वही जीव जब मायासंज्वलनको लोभसंज्वजनमें संक्रमित करता है तब लोभसंज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । यह ओघसे उत्कृष्ट स्वामित्व है । ओघ से सामान्य मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति स्वामी क्षपितकर्माशिक जीव क्षपणा के अन्तिम समय में होता है । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व की जवन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा क्षपितकर्माशिक जीव होता है जो अन्तमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करते समय मिध्यात्वकी दो समय कालवाली एक स्थितिको प्राप्त है। तथा वही जीव जब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा किये बिना मिध्यात्वमें जाकर दीर्घं उद्वेलना काल के द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए अपने अपने समय में दो समय कालवाली एक स्थितिको प्राप्त होता है तब वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका स्वामी होता है | मध्यकी आठ कपायोंके विषय में ऐसा क्षपितकर्माशिक जीव लेना चाहिये जो
भव्यों के योग्य जघन्य प्रदेशविभक्ति करके सोंमें उत्पन्न हुआ है और वहाँ आगमोक्त क्रिया व्यापार द्वारा उसे और भी कम करके अन्तमें क्षपण कर रहा है। ऐसे जीवके जब इनकी दो समय कालवाली एक स्थिति शेष रहती है तब वह इनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता
| वही जीव जब अनन्तानुबन्धीको बार बार विसंयोजना कर लेता है और अन्तमें दो छयासठ सागर कालतक सम्यक्त्वका पालन करके पुनः उसकी विसंयोजना करता है तब वह अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी दो समय कालवाली एक स्थिति के रहते हुए उनकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका भी क्षपितकर्माशिक जीव ही अपनी अपनी चपणा के अन्तिम समयमें उदयस्थितिके सद्भावमें जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है । पुरुषवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी ऐसा क्षपक पुरुषवेदी होता है जो जघन्य घोलमान योग से पुरुषवेदका बन्ध करके उसका संक्रमण करते हुए अन्तिम समय में स्थित है । इसी प्रकार संज्वलन क्रोध, मान और मायाकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी घटित कर लेना चाहिये । लोभ संज्व
नकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी क्षपक अधः करणके अन्तिम समय में होता है । तथा छह नोकपायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका स्वामी भी ऐसा क्षपक होता है जो अन्तिम स्थिति काण्डकके संक्रमणके अन्तिम समयमें स्थित है । यह ओघसे जघन्य स्वामित्व है । आदेशसे
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