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________________ होती है। अब रहीं उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्तियों सो ये सादि और अध्रुव इस तरह दो प्रकार की ही होती हैं। जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए वह सादि और अध्रुव है। तथा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कादाचित्क हैं, इसलिए ये भी सादि और अध्रुव हैं। यह ओघ प्ररूपणा है। आदेशसे सब गतियाँ परिवर्तनशील हैं, अतः उनमें उक्त सब प्रदेशविभक्तियाँ सादि और अध्रुव ही होती हैं। आगे अन्य मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार विचार कर घटित कर लेना चाहिए। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, मध्यकी आठ कषाय और पुरुषवेदके बिना आठ नोकषाय इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, अतः इनकी भी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेश विभक्तियाँ सादि और अध्रुव तथा अजघन्य प्रदेशविभक्तियाँ अनादि, ध्रुव और अध्रुव होती हैं। पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढा हआ जो गणितकाशवाला जीव जब स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिको पुरुषवेदमें संक्रमित करता है तब पुरुषवेदकी एक समयके लिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब पुरुषवेद और छह नोकषायोंके द्रव्यको संज्वलन क्रोधमें संक्रमित करता है तब संज्वलन क्रोधकी एक समयके लिए उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब संज्वलन क्रोधके द्रव्यको संज्वलनमानमें संक्रमित करता है तब संज्वलनमानकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । यही जीव जब संज्वलनमानके द्रव्यको संज्वलन तायामें संक्रमित करता है तब संज्वलन मायाकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तथा यही जीव जब संज्वलन मायाके दव्यको संज्वलन लोभमें संक्रमित करता है तब संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तथा इनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है। इस प्रकार इन पाँचोंकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति एक समयके लिए होती है, इसलिए ये सादि और अध्रुव हैं। तथा इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति अनादि, ध्रुव और अध्रुव हैं। मात्र पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म क्षपितकांश अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति सादि भी बन जाती है। तथा इन पाँचोंकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारकी है । जब तक इनकी उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति नहीं प्राप्त होती तब तक तो यह अनादि, ध्रुव और अध्रुव है और उत्कृष्टके बाद यह सादि है। सम्यक्त्व और सम्य ग्मिथ्यात्व ये प्रकृतियाँ सादि और सान्त हैं, इसलिए इनके चारों ही पद सादि और अध्रुव हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तियाँ कादाचित्क हैं, जघन्य प्रदेशविभक्ति क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए ये तीनों सादि हैं। तथा क्षपणाके पूर्व इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति नियमसे होती है इसलिए तो यह अनादि है। तथा क्षपणाके बाद पुनः संयुक्त होने पर यह सादि है। ध्रुव और अध्रुव विकल्प तो यहाँ सम्भव हैं ही। इस प्रकार इनकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति चारों प्रकारकी प्राप्त होती है। यह ओघप्ररूपणा है। आदेशसे अचक्षुदर्शन और भव्यमार्गणामें ओघप्ररूपणा बन जाती है। मात्र भव्यमार्गणामें ध्रुव भङ्ग सम्भव नहीं है। शेष सब मार्गणाएँ परिवर्तनशील हैं, अतः उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट आदि चारों विभक्तियाँ सादि और अध्रुव ही प्राप्त होती हैं। स्वामित्व-सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का स्वामी ऐसा गुणितकांशिक जीव होता है जो बादरपृथिवीकायिकों और बादर त्रसोंमें परिभ्रमण करके अन्तमें दो बार सातवें नरकके नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त कम पूरी आयु बिता चुका है। यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी किस समय होता है इस सम्बन्धमें दो मत हैं। एक मतके अनुसार अन्तर्मुहूर्त नरकायु शेष रहनेपर उसके प्रथम समयमें होता है और दूसरे मतके अनुसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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