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________________ ( ३ ) असंख्यातवें भागका भाग देने पर जो बहुभाग शेष रहे वह समान रूपसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय इन तीन कर्मों में बाँट दे । लब्ध द्रव्यमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देने पर बहुभागप्रमाण बचे हुए द्रव्यको नाम और गोत्र इन दो कर्मों में बाँट दे । तथा अन्तमें लब्ध रूपमें जो एक भाग बचता है वह आयु कर्मको दे दे । इस प्रकार विभाग करने पर मोहनीय कर्मको प्राप्त हुआ द्रव्य आ जाता है। मोहनीयकर्मको प्राप्त हुआ यह द्रव्य उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका होकर भी सब कर्मों की अपेक्षा पूर्व में जो विभागका क्रम बतलाया है उसमें कोई बाधा नहीं आती । इस प्रकार ज्ञानावरणादि आठ कर्मों को जो द्रव्य मिलता है उसका अलग अलग विचार करनेपर आयु कर्मको सबसे स्तोक द्रव्य मिलता है। नाम और गोत्र कर्मका द्रव्य परस्परमें समान होकर भी आयुकर्मके द्रव्यसे विशेष अधिक होता है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायकर्मको मिलनेवाला द्रव्य परस्परमें समान होकर भी नाम और गोत्रकर्मको मिले हुए द्रव्यसे विशेष अधिक होता है। इससे मोहनीय कर्मका द्रव्य विशेष अधिक होता है और मोहनीयके द्रव्यसे वेदनीयकर्मका द्रव्य विशेष अधिक होता है । यह ओघप्ररूपणा है । सब मार्गणाओं में इसे इसीप्रकार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए । उत्तरप्रकृतियोंमें मोहनीय कर्मके सब द्रव्यका विभाग करते हुए पहले उसमें अनन्तका भाग दिलाकर एक भाग सर्वघाति द्रव्य और शेष बहुभाग देशघाति द्रव्य बतलाया गया है । देशघाति द्रव्यमें भी कषाय और नोकषाय रूपसे उसे बाँटा गया है । बादमें प्रत्येकका अपने अपने अवान्तर भेदों में बटवारा किया गया है । इसी प्रकार सर्वघाति द्रव्यको भी सर्वघाति प्रकृतियों में विभक्त करके बतलाया गया है । इस विषयकी विशेष जानकारीके लिए मूलमें देख लेना चाहिए । गति आदि मार्गणाओं में विचार करते समय नरकगतिमें जो विशेषता है उसका अलग से निर्देश करके अन्यत्र भी जान लेने की सूचना की गई है। इस प्रसङ्गसे गतिसम्बन्धी जिन मार्गणाओं में नरकगतिसे कुछ विशेषता है उसका निर्देश करके उत्कृष्ट भागाभाग प्ररूपणाको समाप्त किया गया है । जघन्य भागाभागका भी इसी प्रकार स्वतन्त्रतासे विचार करते हुए ओ और आदेश से उसका अलग अलग स्पष्टीकरण किया गया है। आदेशप्ररूपणा की अपेक्षा मात्र नरकगति में विशेष विचार करके गतिमार्गणाके जिन अवान्तर भेदोंमें नरकगतिके समान जघन्य भागाभाग सम्भव है उनका नाम निर्देश करके इस प्रकरणको समाप्त किया गया है । सर्व- नोसर्व प्रदेशविभक्ति – सर्वप्रदेशविभक्ति में सब प्रदेश और नोसर्वप्रदेशविभक्तिमें उनसे न्यून प्रदेश विवक्षित हैं। मूल और उत्तर प्रकृतियों में ये यथायोग्य ओघ और आदेशसे घटित कर लेने चाहिए । उत्कृष्ट- अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति- – सबसे उत्कृष्ट प्रदेश उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति है और उनसे न्यून प्रदेश अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंके ओघ और आदेश से जहाँ पर ये जितने सम्भव हों उन्हें उस प्रकारसे जान लेना चाहिए । जघन्य- अजघन्य प्रदेशविभक्ति - सबसे कम प्रदेश जघन्य प्रदेशविभक्ति है और उनसे अधिक प्रदेश अजघन्य प्रदेशविभक्ति है । मूल और उत्तर प्रकृतियोंके ओघ और आदेशंसे जहाँ पर ये जिसप्रकार प्रदेश सम्भव हों उन्हें उस प्रकार से जान लेना चाहिए । सादि-अनादि- व-अभ्र वप्रदे शविभक्ति - सामान्यसे मोहनीयके क्षय होनेके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और इससे पूर्व सब अजघन्य प्रदेशविभक्ति है, अतः अजघन्य प्रदेशविभक्ति सादि विकल्पके बिना अनादि, ध्रुव और अध्रुव यह तीन प्रकारकी Jain Education International G For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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