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________________ मूल और उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्व चारों गतियोंकी अपेक्षासे तो मूलमें ही कहा है, इसलिए इसे वहाँसे जान लेना चाहिए। तथा अन्य मार्गणाओंमें उक्त स्वामित्वको देखकर घटित कर लेना चाहिए । यहाँ पर मूलमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तक किस प्रकृतिके सान्तर और निरन्तर कितने स्थान किस प्रकार प्राप्त होते हैं यह सब कथन विस्तारके साथ किया है सो उसे वहाँ मूलमें ही देखकर समझ लेना चाहिये। काल—सामान्यसे मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म तेतीस सागरको आयुवाले नारकीके अन्तिम समयमें होता है, इसलिये इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति जो उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके अनन्तकाल तक देखी जाती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। किन्तु यदि परिमाणोंकी मुख्यतासे देखा जाय तो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि सब प्रकारके प्रदेशसत्त्वके कारणभूत परिणाम ही असंख्यात लोकप्रभाण हैं। और जिसने सातवें नरकमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म करके यथाविधि मनुष्य पर्याय प्राप्त कर आठ वर्षकी अवस्थामें हो क्षपकश्रेणिपर आरोहणकर मोहनीयका नाश किया है उसकी अपेक्षासे देखा जाय तो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल आठ वर्ष अधिक अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । मिथ्यात्व आदि अवान्तर प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका यह काल इसी प्रकार जानना चाहिये । मात्र कुछ प्रकृतियोंके काल में कुछ विशेषता है । यथा-अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति जो अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे दो बार विसंयोजना करता है उसके होती है, इसलिए उसका जघन्य काल मात्र अन्तर्मुहूत ही प्राप्त होता है । जैसा कि स्वामित्वमें बतला आये हैं, चार संज्वलन और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति यथायोग्य क्षपकश्रेणिमें होती है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त यह तीन प्रकारका प्राप्त होता है। अनादि-अनन्त काल अभव्योंके होता है, अनादि-सान्त काल अपनी अपनी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्व तक भव्योंके होता है। और सादिसान्त काल ऐसे जीवोंके होता है जिन्होंने उत्कृष्ट प्रदेशविभिक्ति करके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति की है। मात्र इस प्रकार जो अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति प्राप्त होती है वह अन्तर्मुहूर्त कालतक ही पाई जाती है, क्योंकि क्षपण हो जानेसे आगे इन प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं पाया जाता, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक साधिक दो छयासठ सागर कालतक सत्त्व पाया जाता है, इसलिए इनकी अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर कालप्रमाण है। सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समयमें होती है, इसलिए इसकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है जो अपने अपने जघन्य स्वामित्वके समय प्राप्त होती है । तथा मिथ्यात्व, ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि-अनन्त और अनाति-सान्त है, क्योंकि अभव्योंके इसका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है, इसलिए तो अनादि-अनन्त विकल्प बन जाता है और भव्योंके अपने जघन्य स्वामित्वके पूर्व तक यह विभक्ति पाई जाती है, इसलिए अनादि-सान्त विकल्प बन जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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