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________________ गा० २२] पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए सामित्तं ३६१ मुक्कस्सयमधाणिसेयकालं भवहिदीए आदिम्मि काऊणुप्पज्जिय सबलहुँ सव्वाओ पज्जत्तीओ समाणिय उक्कस्सयजहाणिसेयहिदिपत्तयस्सादिं कादण पुरदो भण्णमाणसयविसुद्धीए सम्ममणुपालिदतकालस्स तकालचरिमसमयम्मि वट्टमाणयस्स उक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ ति घेत्तव्वं । अहवा जत्ति एण कालेण उक्स्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ तस्स कालस्स संगहो कायव्वो। केत्तिएण च कालेण तस्स संचओ ? जहण्णएण अधाणिसेयकालेण। एतदुक्त भवति-अधाणिसेयकालो जहण्णओ वि अस्थि उक्स्सो वि । तत्थुक्कस्सकालभंतरे ओकड्ड क्कड्डणाए बहुदव्वविणासेण लाहादसणादो जहण्णकालस्सेव संगहो कायव्यो ति । तदो तिरिक्खो वा मणुस्सो वा सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववज्जमाणो जहण्णाबाहाजहण्णापज्जत्तद्धासमासमेत्तंतोमुहुत्तब्भहियं जहण्णयमधाणिसेयहिदिपत्तयसंचयकालभवहिदीए आदिम्मि काऊणुप्पज्जिय छप्पज्जत्तीओ समाणिय उकस्सअधागिसेयहिदिपत्तयसंचयमाढविय समयाविरोहेण समाणिदतकालो जो गेरइओ तस्मुक्कस्सयमधाणिसेयहिदिपत्तयं होइ ति सुत्तत्थसंगहो। जत्थ वा तत्थ वा णिरयाउअभंतरे संचयकालमपरूविय अंतोमुहुत्तववण्णणेरइयप्पहुडि संचयं कराविय सगसंचयकालचरिमसमए सामित्तं नारकी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक उत्कृष्ट यथानिषेक कालको भवके प्रथम समयमें करके उत्पन्न हुआ है और जिसने अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंको समाप्त करके उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्तसे लेकर आगे कही जानेवाली अपनी विशुद्धिके द्वारा उस कालका भले प्रकारसे रक्षण किया है उस नारकीके उस कालके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य होता है ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिये। अथवा जितने कालके द्वारा उत्कृष्ट यथानिषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य प्राप्त होता है उस कालका यहाँ संग्रह करना चाहिये । शंका-कितने कालके द्वारा उसका संचय होता है ? समाधान-यथानिषेकके जघन्य काल द्वारा उसका संचय होता है। आशय यह है कि यथानिषेकका जघन्य काल भी है और उत्कृष्ट काल भी है। उसमेंसे उत्कृष्ट कालके भीतर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा बहुत द्रव्यका विनाश हो जानेके कारण लाभ दिखाई नहीं देता है, इसलिये यहाँ जघन्य कालका ही संग्रह करना चाहिये । इसलिये जो तिर्यश्च या मनुष्य सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हो रहा है वह जघन्य आबाधा और जघन्य अपर्याप्त कालके जोड़रूप अन्तर्मुहूर्त कालसे अधिक यथानिषेकस्थितिप्राप्तके जघन्य संचयकालको भवस्थितिके प्रथम समयमें प्राप्त करके उत्पन्न हुआ फिर छह पर्याप्तियोंको समाप्त करके और यथानिषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट संचयका आरम्भ करके जब आगममें बतलाई हुई विधिके अनुसार उक्त कालको समाप्त कर लेता है उस नारकीके उत्कृष्ट यथानिषेकस्थिति प्राप्त द्रव्य होता है यह इस सूत्रका समुदायार्थ है। शंका-नरकायुके भीतर जहाँ कहीं भी संचय कालका कथन न करके नारकीके उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त कालसे लेकर संचयका प्रारम्भ कराकर फिर अपने संचय कालके अन्तिम समयमें सूत्रकारने जो स्वामित्वका कथन किया है सो उनके ऐसा कहनेका क्या अभिप्राय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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