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________________ ३६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तहाविहाणादो। तं जहा-सेसगदीसु विसोहिकाले बहुअमोकड्डिय हेहा संछुहइ । संकिलेसेण वि बहुअमुक्कड्डियूणुवरि संछुहइ त्ति दोहि मि पयारेहिं अहियारगोवुच्छाए बहुदव्ववओ होइ। सत्तमपुढविणेरइयम्मि पुण एयंतेण संकिलेसो चेव तेणेयपयारेणेव तत्थ णिज्जरा होइ ति सेसपरिहारेण तस्सेव गहणं कदं । अधवा सत्तमपुढविणेरइयस्स संकिलेसबहुलस्स णिकाचणादिकरणेहि बहुअं दवमाणिसेयहिदिपत्तयसरूवेण लब्भइ, ण सेसगईसु त्ति एदेणाहिप्पारण तत्थेव सामित्तं दिण्णं । ६४१. संपहि तस्सेव विसेसलक्खणपरूवणहमुत्तरसुत्तावयवकलावो- एत्थ जत्तियमधाणिसेयद्विदिपत्तयमुक्कस्सयमिदि उत्ते पुव्वं परूविदासखेजपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणुक्कस्सजहाणिसेयसंचयकालमेतमिदि घेत्तव्वं । तं कुदो परिच्छिज्जदे ? तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जो गेरइओ ति सुत्तावयवादो। एत्थ विसेसुत्तरपमाणमपज्जत्तकालेण सह गदजहण्णाबाहमेत्तमिदि गहेयव्वं, आबाहाब्भंतरे जहाणिसेयसंभवाभावादो अपज्जत्तकाले वि जोगबहुत्ताभावेण सव्वुक्कस्सपदेससंचयाणुववत्तीदो । तस्स जहण्णेण इदि वुत्ते तस्स तारिसस्स गेरइयस्स जहण्णेण अंतोमुहुत्तेणब्भहिय समाधान-नहीं, क्योंकि शेष गतियोंमें संक्लेश और विशुद्धिके कारण बहुत निर्जरा होती है, इसलिये उसे देखते हुए ऐसा विधान किया है। खुलासा इस प्रकार है-शेष गतियोंमें विशुद्धिके समय बहुत द्रव्यका अपकर्षण होकर उसका नीचेकी स्थितियोंमें निक्षेप होता है और संक्लेशके कारण बहुत द्रव्यका उत्कर्षण होकर उसका ऊपर की स्थितियोंमें निक्षेप होता है इस प्रकार वहाँ दोनों ही प्रकारों से अधिकृत गोपुच्छाके बहत द्रव्यका ब्यय हो जाता है। किन्तु सातवीं पृथिवीके नारकीके तो एकान्तरूपसे संक्लेश ही पाया जाता है, इसलिये वहाँ एक प्रकारसे ही निर्जरा होती है, इसलिये शेष गतियोंका निराकरण करके केवल उसी गतिका ही ग्रहण किया है। अथवा सातवीं पृथिवीका नारकी संक्लेशबहुल होता है, इसलिये उसके निकाचना आदि करणोंके द्वारा यथानिषेकस्थितिप्राप्त रूपसे बहुत द्रव्य पाया जाता है, शेष गतियोंमें नहीं, इस प्रकार इस अभिप्रायसे भी वहीं पर स्वामित्व दिया है। ६६४१. अब उसीका विशेष लक्षण बतलानेके लिये सूत्रका शेष भाग आया है-यहाँ सूत्रमें जो 'जत्तियमधाणिसेयढिदिपत्तयमुक्कस्सयं' यह कहा है सो उससे पहले कहे गये पल्यके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण उत्कृष्ट यथानिषेक संचयकालका ग्रहण करना चाहिये । शंका--यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रमें जो 'तत्तो विसेसुत्तरकालमुववण्णो जो णेरइओ' यह वचन कहा है उससे जाना जाता है। ___ यहाँ पर विशेषोत्तर कालका प्रमाण अपर्याप्त कालके साथ व्यतीत हुआ जघन्य आबाधाप्रमाण काल ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि एक तो आबाधाकालके भीतर यथानिकोंकी सम्भावना नहीं है और दूसरे अपर्याप्त काल में भी बहुत योग न होनेके कारण सर्वोत्कृष्ट प्रदेश संचय नहीं बन सकता है। तथा सूत्र में जो 'तस्स जहण्णेण' यह कहा है सो इसका यह आशय है कि जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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