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________________ ४०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ मिच्छत्तं गदो जाधे गुणसेढिसीसयाणि उदिएणाणि ताधे मिच्छत्तस्स उक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं । ६५६. एदस्स मुत्तस्सत्थपरूवणा उदयादो उक्कस्सझीणहिदियसामित्तसुत्तभंगो। एवं मिच्छत्तस्स चउण्हं पि हिदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तं परूविय संपहि एदेण समाणसामियाणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमप्पणं करेइ * एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पि। ६५७. जहा मिच्छत्तस्स चउण्हमग्गहिदिपत्तयादीणं सामित्तविहाणं कदमेवं सम्मत्त-सम्मापिच्छत्ताणं पि, विसेसाभावादो। णवरि सम्मत्तस्स जहाणिसेय-णिसेयहिदिपत्तयाणमुक्कस्ससामित्तं भण्णमाणे उव्वेल्लणकालादो जइ जहाणिसेयकालो बहुओ होइ तो पुव्वमेव जहाणिसेयस्सादि करिय पुणो संचयं करेमाणो चेव उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण संचयं काऊण पुणो अविणहवेदयपाओग्गकालम्मि वेदयसम्मत्तग्गहणपढमसमए वट्टमाणो जो जीवो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिहिस्स तिसु वि जहाणिसेयगोवुच्छासु उदयं पविस्समाणासु उक्कस्ससामितं वत्तव्वं । अध अधाणिसेयसंचयकालादी उव्वेल्लणकालो बहुओ होज्ज तो पुव्वमेव पडिवण्णसम्पत्तो मिच्छत्तं गंतूण पुणो जहाणिसेयहिदिपत्तयस्सादि काऊण करके मिथ्यात्वमें गया है उसके जब गुणश्रेणिशीर्ष उदयको प्राप्त हुए हैं तब वह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है। ६६५६. पहले उदयसे झीनस्थितिवाले उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रका जैसा विवेचन किया है उसीप्रकार इस सूत्रका भी विवेचन कर लेना चाहिये। इसप्रकार मिथ्यात्वके चारों ही स्थितिप्राप्तोंके स्वामित्वका कथन करके अब इससे जिनके स्वामी समान हैं ऐसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे कथन करते हैं * इसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके स्वामित्वका भी विधान करना चाहिये। ६६५७. जिस प्रकार मिथ्थात्वके चारों अग्रस्थितिप्राप्त आदिके स्वामित्वका कथन किया है उसीप्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भी करना चाहिये क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके यथानिषेक और निषेकस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करने पर उद्वेलनकालसे यदि यथानिषेकका काल बहुत होवे तो पहलेसे ही यथानिषेकका प्रारम्भ करके फिर संचय करता हुआ ही उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक उसके साथ रहकर मिथ्यात्वमें जावे। और वहां संचय करके वेदक योग्य कालके नाश होनेके पहले ही वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके उसके प्रथम समयमें जो जीव स्थित है उस प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके तीनों ही यथानिषेक गोपुच्छाओंके उदयमें प्रवेश करने पर उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये । और यदि यथानिषेकके संचयकाल :: उद्वलनाका काल बहुत होवे तो पहले से ही सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वमें जावे। फिर यथानिषेकस्थितिप्राप्तका Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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