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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए डिदियचूलियाए सामित्तं ४०१ संचयं करिय गहिदवेदगसम्मत्तपढमसमए तिण्हं पि गोवुच्छाणं पदेसग्गमेकलग्गीभूदमुदयगदं धरिय हिदो जीवो पयदुक्कस्ससामिओ होइ ति वत्तव्यं । एत्थ पुण विसिहोवएसमस्सियूण अण्णदरपक्वपरिग्गहो कायव्यो; संपहियकाले तहाविहोवएसाभावादो । संपहि इममधाणिसेयगोवुच्छमुदयावलियं पवेसिय पढमसमए चेव सम्मत्तं गेण्हावेमो जहण्णाबाहमेत्तं वा सामित्तसमयादो हेटदो ओसारिय, उवरि संचयाभावादो ति भणिदे ण, सम्मत्तं पडिवज्जाविय पुणो उदयावलियं जहण्णाबाहमेत्तकालं वा वोलाविय सामित्ते दिजमाणे जहाणिसेयहिदिदबस्स बहुअस्स ओकड्डणाए विणासप्पसंगादो। किं कारणमुदयावलियबाहिरावहिदावत्थाए ताव ओकड्डणाए बहुदव्वविणासो सम्मत्ताहिमुहस्स होइ ति ण एत्थ संचओ । उदयावलियपविठ्ठपढमसमए वि सम्मत्तं गेण्हमाणो पुचमेवंतोमुहुत्तमत्थि ति तदहिमुहावत्थाए चेव विसुज्झतो बहुअं दव्यमोकड्डणाए णासेइ त्ति ण तत्थ सम्मत्तं पडिवजाविदो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि सामितं वत्तव्वं । णवरि पुत्वविहाणेण संचयं करिय सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमयसम्मामिच्छाइहिस्स जहाणिसेयहिदिपतयं णिसेयहिदिपत्तयं च कायव्वं । आरम्भ करके संचय करे और इसप्रकार जब वह सं वयकालके अन्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके प्रथम समय में विद्यमान रहे तब उसके तीनों ही गोपुच्छाओंका द्रव्य एकत्रित होकर उदयको प्राप्त होने पर प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है ऐसा कथन करना चाहिये। परन्तु यहाँ विशिष्ट उपदेशको प्राप्त करके किसी एक पक्षको स्वीकार करना चाहिये, क्योंकि वर्तमान कालमें ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता जिससे समुचित निर्णय किया जा सके। शंका-अब इस यथानिषेकगोपुच्छाको उदयावलिमें प्रवेश कराके उसके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्वको ग्रहण करावे या स्वामित्व समयसे जघन्य अबाधाकालका जितना प्रमाण है उतना पीछे जाकर सम्यक्त्वको ग्रहण करावे, क्योंकि इसके ऊपर उत्कृष्ट संचयका अभाव है ? समाधान-नहीं, क्योंकि यदि सम्यक्त्वको प्राप्त कराके फिर उदयावलि या जघन्य अबाधाप्रमाण कालको बिताकर उत्कृष्ट स्वामित्व दिया जाता है तो अपकर्षणके द्वारा यथानिषेकस्थितिप्राप्तके बहुत द्रव्यका अपकर्षणके द्वारा विनाश प्राप्त होता है, क्योंकि उदयावलिके बाहर अवस्थित रहते हुए सम्यक्त्वके अभिमुख होनेके कारण इसके अपकर्षणके द्वारा बहुत द्रव्यका विनाश देखा जाता है इसलिये यहां उत्कृष्ट संचय नहीं हो सकता। इसीप्रकार जो उदयावलिमें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें भी सम्यक्त्वको ग्रहण करता है वह अन्तर्मुहूर्त काल पहले ही सम्यक्त्वके सन्मुखरूप अवस्थाके होनेपर विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अपकर्षणद्वारा बहुत द्रव्यका नाश कर देता है, इसलिये वहां स्वामित्व नहीं प्राप्त कराया है। इसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भी स्वामित्व कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पूर्वविधिसे संचय करके जो सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है प्रथम समयवर्ती उस सम्यग्मिथ्यादृष्टिके यथानिषेकस्थितिप्राप्त और निषेकस्थितिप्राप्त द्रव्य करना चाहिये। विशेषार्थ-मालूम होता है कि यथानिषेककाल और उद्वलनाकाल इनमेंसे कौन छोटा है और कौन बड़ा इस विषयमें मतभेद रहा है। एक परम्पराके मतानुसार उद्वलनाकालसे यथानिषेककाल बड़ा है और दूसरी परम्पराके मतानुसार यथानिषेककालसे उबलनाकाल बड़ा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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