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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ९६५८. संपहि उदयडिदिपत्तयस्स सामित्तविसेसपरूवणद्वमुत्तरमुत्तं भणॐ एबरि उकस्सयमुदयद्विदिपत्तयमुक्कस्सयमुदयादो भी डिदिय भंगो । $ ६५६. सम्मत्तस्स चरिमसमयचक्खीणदंसणमोहणीयस्स सव्वोदयं तं घेत्तूण सम्मामिच्छत्तस्स वि उदिण्णसं जमासंजम -संजमगुण से ढिगोवुच्छसीसयाणि घेत्तण पढमसमयसम्मामिच्छा इडिम्मि गुणिदकिरियपच्छायदम्मि सामित्तविहाणं पडि ततो विसेसाभावादो । ४०२ ९ ६६०. एवमेदं परूविय संपहि मिच्छत्तसमाणसामियाणं सेसाणं पि टीका में बतलाया है कि इस समय ऐसा विशिष्ट उपदेश प्राप्त नहीं जिसके आधार से यह निर्णय किया जा सके कि अमुक मत सही है, अतः विशिष्ट उपदेश मिलने पर ही इस विषयका निर्णय करना चाहये । तथापि यदि यथानिषेककाल बड़ा होवे तो उद्व ेलनाका प्रारम्भ पीछेसे कराके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त करना चाहिये और यदि उद्वेलनाकाल बड़ा हो तो उद्वेलनाका प्रारम्भ होनेके बाद से यथानिषेकके संचयका प्रारम्भ कराके उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि ऐसा किये बिना उत्कृष्ट स्वामित्व नहीं प्राप्त किया जा सकता है। यहां पर टीकामें एक विवाद यह भी उठाया गया है कि सम्यक्त्व प्राप्त करानेके कितने काल बाद उत्कृष्ट स्वामित्व दिया जाय ? सिद्धान्त पक्ष सम्यक्त्व प्राप्त कराके उसके प्रथम समय में ही उत्कृष्ट स्वामित्व दिलानेका है पर शंकाकार यह स्वामित्व सम्यक्त्व प्राप्त करनेके बाद एक आवलिकाल या जघन्य आबाधाप्रमाण काल होने पर दिलाना चाहता है किन्तु विचार करने पर सिद्धान्त पक्ष ही समीचीन प्रतीत होता है जिसका विशेष खुलासा टीका में किया ही है। इसप्रकार सम्यक्त्वके यथानिषेक और निषेक स्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार किया । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा से भी विचार कर लेना चाहिए | किन्तु इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान के प्रथम समय में प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका उदद्य वहीं पर पाया जाता है । $ ६५८. अब उदयस्थितिप्राप्त द्रव्य के स्वामित्वविशेषका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका भंग उदयसे उत्कृष्ट झीनस्थितिप्राप्त द्रव्यके समान है 1 $ ६५९ जिसने दर्शनमोहनीयका पूरा क्षय नहीं किया है उसके दर्शनमोहनीयका क्षय करने के अन्तिम समय में सम्यक्त्वका जो सर्वोदय होता है उसकी अपेक्षा गुणितक्रियावाले जीवके उदयस्थितिप्राप्तके उत्कृष्ट स्वामित्वका बिधान किया गया है । इसीप्रकार उदयको प्राप्त हुए संयमासंयम और संयम सम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छशीर्षो की अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानके प्रथम समय में गुणितक्रियावाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्व के उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान किया है इसलिये इन दोनों प्रकृतियोंकी अपेक्षा उदयसे भीनस्थितिवाले द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्व से इसमें कोई भेद नहीं है । विशेषार्थ - सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यका उत्कृष्ट स्वामित्व पहले बतला आये हैं उसीप्रकार प्रकृत में जानना चाहिये । ९६६०. इसप्रकार उक्त स्वामित्वका कथन करके मिध्यात्व के समान स्वामीवाले शेष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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