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________________ ४०३ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए हिदियचूलियाए सामित्तं ‘समप्पणहमुत्तरो पबंधो 8 अणंताणुबंधि-अकसाय-छण्णोकसायाणं मिच्छत्तभंगो। ६६६१. जहा मिच्छत्तस्स सव्वेसिमुक्कस्सहिदिपत्तयादीणं सामितपरूवणा कया तहा एदेसि पि कम्माणं कायव्या, विसेसाभावादो। संपहि एत्थ संभव विसेसपदुप्पायणमुत्तरमुत्तमाह * णवरि अकसायाणमुक्कस्सयमुदयहिदिपत्तयं कस्स ? ६६२, सुगम । 8 संजमासंजम-संजम-दसणमोहणीयक्खवयगुणसेढिसीसएसु त्ति एदाओ तिगिण वि गुणसेढीयो गुणिदकम्मसिएण कदाओ । एदाओ काऊण अविण सु असंजमं गो । पत्तेसु उदयगुणसेढिसीसएसु उकस्सयमुदयहिदिपत्तयं । ६६६३. अणंताणुबंधीणमणूणाहिओ मिच्छत्तभंगो त्ति ते मोत्तूण पञ्चक्खाणापञ्चक्रवाणकसारसुक्कस्ससामित्तविहाययसुत्तस्सेदस्स उदयादो उकस्सझीणहिदियसामित्तसुत्तस्सेव अवयवसमुदायत्थपरूवणा कायना । एयंताणुवड्डिचरिमसमयसंजदासंजद-संजदपरिणामेहि कदगुणसेढिसीसयाणि दोण्णि वि एकदो काऊण पुणो वि कर्मों का भी मुख्यरूपसे कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * अनन्तानुबन्धीचतुष्क, आठ कषाय और छह नोकषायोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। ६६६१. जिसप्रकार मिथ्यात्वके सभी उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदिकके स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार इन कर्मों का भी करना चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब यहाँ जो विशेषता सम्भव है उसका कथन करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं * किन्तु आठ कषायोंके उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी कौन है ? $ ६६२. यह सत्र सुगम है। * जो गुणितकौशिक जीव संयमासंयम, संयम और दर्शनमोहनीयकी सपणासम्बन्धी गुणश्रेणिशीर्ष इन तीनों ही गुणश्रेणियोंको करके और इनका नाश किये बिना असंयमको प्राप्त हुआ है वह गुणश्रेणिशीर्षों के उदयमें आनेपर उत्कृष्ट उदयस्थितिप्राप्त द्रव्यका स्वामी है। ६६६३. अनन्तानुबन्धियोंका भंग न्यूनाधिकताके बिना मिथ्यात्वके समान है, अतः उन्हें छोड़कर प्रत्याख्यानावरण और अप्रत्याख्यानावरण कषायोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका विधान करनेवाले इस सूत्रके अवयवार्थ और समुदायाथैकी प्ररूपणा उदयसे झीनस्थितिवाले द्रव्यके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रके समान करना चाहिये । एकान्तानुवृद्धिके अन्तिम समयमें संयतासंयत और संयतरूप परिणामोंके द्वारा किये गये दोनों ही गुणश्रेणिशीर्षों को मिलाकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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