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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ चेव णियमेणुदयो ति जाणाविदं । अरदि-सोगा ओकड्डित्ता उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता ति एदेण वि दोण्हमेदेसिमुदयस्स तत्थच्चंताभावो सूचिदो, अण्णहा उदयावलियबाहिरे णिक्खेवणियमाभावेण असंखेजलोगपडिभागेणुदयावलियभंतरे णिसित्तदव्वं घेतूण हस्स-रईणं व जहण्णसामित्तं होज्ज ।
$ ५७२. एवमुदयाभावेणुदयावलियबाहिरे ओकड्डिय एयगोवुच्छायारेण णिक्खित्ताणमरइ-सोगाणं से काले दुसमयदेवस्स एया हिंदी उदयावलियं पविहा, हेहा एगसमयस्स गलणादो । ताधे तेसिं जहण्णयमोकड्डणादितिण्हं पि झीणहिदियं होइ, आवलियपवि? यणिसेयस्स तत्तो झीणहिदियत्तेण गहणादो । एत्थुवरि सामित्तासंकाए णत्थि संभवो, तत्थ समयं पडि णिसेयवुड्डिं मोत्तूण जहण्णभावाणुववत्तीदो । एत्थ के वि आइरिया अत्थसंबंधमत्रलंबमाणा भणति-जहा अंतरकदपढमसमयप्पहुडि समयूणावलियमेतद्धाणं गंतूण रइ-सोयाणं पढमहिदि गालिय कालं करिय देवेसु
सूत्र में 'ओकड्डित्ता उदयावलियबाहिरे णिक्खित्ता' जो यह कहा है सो इस वचनके द्वारा यह सूचित किया है कि इन दोनोंका उदय वहां अत्यन्त असम्भव है। यदि ऐसा न माना जाय तो उदयावलिके बाहर ही इनके द्रव्यके निक्षेपका नियम न रहनेसे असंख्यात लोकप्रमाण प्रतिभागके अनुसार उदयावलिके भीतर निक्षिप्त हुए द्रव्यकी अपेक्षा हास्य और रतिके समान इनका भी जघन्य स्वामित्व हो जाता। यतः हास्य और रतिके समान इनका जघन्य स्वामित्व नहीं बतलाया, इससे ज्ञात होता है कि देवोंमें उत्पन्न होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक अरति और शोकका उदय न होकर नियमसे हास्य और रतिका ही उदय होता है।
६५७२. इस प्रकार उदय न होनेसे अपकर्षित करके एक गोपुच्छाके आकाररूपसे उदयावलिके बाहर निक्षित हुए अरति और शोककी एक स्थिति तदनन्तर द्वितीय समयवर्ती देवके उदयावलिमें प्रविष्ट होती है, क्योंकि देवके प्रथम समयसे द्वितीय समयवर्ती हो जाने के कारण उदयावलिमें नीचे एक समय गल गया है। तब अपकर्षणादि तीनोंकी अपेक्षा अरति
और शोकके झीनस्थितिवाले द्रव्यका जघन्य स्वामी होता है, क्योंकि यहां पर उदयावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ एक निषेक अपकर्षणादिकी अपेक्षा झीनस्थितिरूपसे ग्रहण किया गया है। यदि कहा जाय कि प्रकृतमें ऊपर अर्थात् देवपर्यायके तृतीय श्रादि समयोंमें प्रकृत स्वामित्व सम्मव है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ प्रत्येक समयमें एक एक निषेककी वृद्धि होती रहती है, इसलिये जघन्यपना नहीं बन सकता है। आशय यह है कि जैसे प्रकृत अहमिन्द्रके द्वितीय समयमें अरति और शोकका उदयावलिके भीतर एक निषेक था वह स्थिति अगले समयोंमें नहीं रहती है। किन्तु तीसरे समयमें उदयावलिमें दो निषेक हो जाते हैं, चौथे समयमें तीन निषेक हो जाते हैं। इस प्रकार उद्यावलिमें उत्तरोत्तर निषेकोंकी वृद्धि होनेसे दूसरे समयके सिवा अन्यत्र प्रकृत जघन्य स्वामित्व नहीं प्राप्त होता।
शंका-प्रकरणवश कितने ही आचार्य यहाँ पर इस प्रकार कथन करते हैं कि जैसे अन्तर करनेके बाद प्रथम समयसे लेकर एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थान जाने पर रति और शोककी प्रथम स्थितिको गलानेके बाद मरकर देवोंमें उत्पन्न कराने पर लाभ दिखाई
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