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________________ गा० २२ ] पदेसविहत्तीए भीणाझीणचूलियाए सामित्तं ३५३ पदे लाहो दीस । तं कथं १ एत्थेव कालं काऊण देवे सुप्पण्णपढमसमए अंतरदीहप्रमाणं बहु होइ दीहमंतरं च पूरेमाणेण गोवुच्छाओ सण्हीकरिय संछुभंति, अंतरहिदीस विहज्जिय तदावूरणमोकडिददव्वस्स पदणादो । तम्हा एवं णिसिंचिया विसिम देवस्स उदयावलियन्भंतरपविद्ध' यणिसेयदव्वमोकडणादितिन्हं पि जहणीणद्विदियं होइ । उवसंतकसाओ पुण कालं काऊण जइ तत्थुप्पइज्जइ तो अंतरदीपमाणं थोवं होइ, हेहदो चेव बहुअस्स कालस्स गालणादो । थोवे वांतरि पूरिज्जमाणे अंतरणिसेगा थोवा होऊण चिट्ठति, पुव्वुत्तदन्वस्स एत्थेव संकुडिय पदणादो ति । तदसमंजसं, कुदो १ अंतरायामाणुसारेणोकडिददव्वादो तप्पूरणह पसग्गग्गहणोवएसादो । तं जहा — दीहयरमंतरं पूरेमाणेनंतरब्भं तरणिसिंचमाणदव्वादो संखेज्जभागहीणदव्वं घेत्तूण थोवयरंतरपूरओ तत्थ णिसेयविरयणं करेई । कुदो एवं road ? विदिपिढमणिसेएण सह एयगोवुच्छण्णहाणुववत्सीदो । देता है वैसे ही प्रकृत में करना चाहिये । उक्त प्रकारसे मरकर देवोंमें उत्पन्न करानेसे क्या लाभ है ऐसी आशंका होने पर शंकाकार कहता है कि जो जीव इसी स्थान पर मरकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में अन्तरका प्रमाण बहुत अधिक पाया जाता है । और इस दीर्घ अन्तर में द्रव्यका निक्षेप करते हुए गोपुच्छाओंको सूक्ष्म करके उनका निक्षेप किया जाता है, क्योंकि अन्तरको पूरा करनेके लिये जो अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है उसका अन्तरकी स्थितियों में विभाग होकर पतन होता है । यतः यहाँ पर अन्तरकाल बड़ा है अतः प्रत्येक निषेकमें कम द्रव्य प्राप्त हुआ । इसलिये इस प्रकारसे निक्षेप करके जो देव दूसरे समय में स्थित है उसके उदद्यावलिके भीतर प्रविष्ट हुआ एक निषेक द्रव्य अपकर्षण आदि तीनोंकी अपेक्षा जघन्य झीनस्थितिरूप होता है ? किन्तु उपशान्तकषाय जीव मरकर यदि वहाँ उत्पन्न होता है तो इसके अन्तरकालका प्रमाण कम प्राप्त होता है, क्योंकि इसके यहाँ उत्पन्न होनेसे पूर्व ही अन्तरका बहुतसा काल व्यतीत हो चुका है । यतः इस देवको थोड़े ही अन्तरको पूरा करना है इसलिये इसके अन्तरसम्बन्धी निषेक थोड़े होने से स्थूल प्राप्त होते हैं, क्योंकि जो द्रव्य पहले बड़े अन्तर के भीतर विभक्त होकर प्राप्त हुआ था वह सबका सब यहाँ इस थोड़ेसे ही अन्तर में संकुचित होकर पतनको प्राप्त हुआ है ? समाधान - यह सब कथन ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा उपदेश पाया जाता है कि जैसा अन्तरायाम होता है उसीके अनुसार उसको पूरा करनेके लिये अपकर्षित द्रव्यके कर्म परमाणु होते हैं। खुलासा इस प्रकार है - बड़े अन्तरको पूरा करनेवाला जीव अन्तरायाममें जितने द्रव्यका निक्षेप करता है थोड़े अन्तरको पूरा करनेवाला जीव उसके संख्यातवें भाग द्रव्यको लेकर वहाँ निषेकरचना करता है । शंका – यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान —– अन्यथा द्वितीय स्थितिके प्रथम निषेकके साथ एक गोपुच्छा नहीं बन सकती, इससे ज्ञात होता है कि अन्तरायामके अनुसार ही उसको भरनेके लिये अपकर्षित द्रव्य प्राप्त होता है । विशेषार्थ —- ऐसा सामान्य नियम है कि देवगतिमें उत्पन्न होने पर प्रथम समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त तक रति और शोकका उदय नहीं होता, इसलिये अपकर्षण आदि तीनोंकी ४५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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