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________________ ७३ -~ -rrr. गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सण्णियासपरूपणा विद्वाणपदिदा-अणंतभागब्भ० असंखे०भागम्भ० वा । बारसक०-णवणोक. णियमा अज० असंखे०भागब्भ० । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं । ११७. अणंताणु कोध. जह० पदे विहत्तिओ मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०वारसक०-णवणोक० णियमा [ अजह० ] असंखे० भागभ० । माण-माया-लोहाणं णियमा तं तु विहाणपदिदा-अणंतभागम० असंखे० भागब्भहिया वा । एवं माणमाया-लोभाणं। $ ११८, अपञ्चकखाणकोध० जह० पदे० एकारसक०-पुरिस०-भय-दुगुंछ० णियमा तं तु विहाणपदिदा-अणंतभाग० असंखे० धागब्भहिया वा। छण्णोक० णियमा अज० असंखे०भागभ० । एवमेकारसक०-पुरिसवेद-भय-दुगुंछाणं । ११६. इत्थिवेद० जह० पदे०विहत्तिओ बारसक०-अट्ठणोक. णियमा अज. असंखे०भागभः। एवं णवंसयवेदस्स । हस्स० जह० पदेस बिहत्तिो बारसक०-सत्तणोक० णियमा अज. असंखे भागब्भ० । रदि० णियमा तं तु मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है। यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्याता भाग अधिक होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। ६११७. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य प्रदेश विभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभकी मुख्यतासे सन्निकष जानना चाहिए। ११८. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति भी होती है और अजघन्य प्रदेश विभक्ति भी होती है । यदि अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है तो वह दो स्थान पतित होती है-या तो अनन्तवें भाग अधिक होती है या असंख्यातवें भाग अधिक होती है । छह नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार ग्यारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी मुख्यतासे सन्निकर्षे जानना चाहिए । ६११६. स्त्रीवेदकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। हास्यकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और सात नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है जो असंख्यातवें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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