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________________ ३७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुबिल्लादो एदस्स महंतो विसेसो। कुदो ? जं कम्म जिस्से हिदीए बंधसमए णिसित्तमणोकड्डिदमुक्कड्डिदं जहा णिसित्तं तहावद्विदं संतं तिस्से चेव हिदीए कम्मोदएण विपच्चिहिदि तमधाणिसेयहिदिपत्तयमिदि गहणादो । पुबिल्लं पुण अोकड्डक्कड्डणवसेंण जत्थ तत्थ वावक्खित्तसरूवेणावहिदं संगलिदसरूवेण तम्मि चेव हिदीए उदयमागच्छंतं गहिदमिदि। कथं जहाणिसेयस्स अधाणिसेयववएसो ति ण पञ्चव यं, 'वच्चंति कगतदयवा लोवं अत्थं वहति तत्थ सरा' इदि यकारस्स लोवं काऊण णिद्दे सादो । जहाणिसेयसरूवेणावहिदस्स हिदिक्खएणोदयमागच्छंतस्स णाणासमयपबद्धसंबंधपदेसजस्स अत्थाणुगओ पयदववएसो त्ति भणिदं होइ । उदयहिदिपत्तयं णाम किं ? ६०६. पुबिल्लाणि सव्वाणि चेव उदयं पेक्खियूण भणिदाणि तम्हा ण ततो एदस्स भेदो ति एवंविहासंकाए पयट्टमेदं पुच्छासुतं । संपहि एदिस्से आसंकाए णिरायरणहमिदमाह तो भी निषेकस्थितिप्राप्तसे इसमें बड़ा अन्तर है, क्योंकि बन्धके समय जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है, अपकर्षण और उत्कर्षणके बिना जिस प्रकार निक्षिप्त हुआ है उसी प्रकार रहते हुए यदि कर्मोदयके समय उसी स्थितिमें वह फल देता है तो वह यथानिषेकस्थितिप्राप्त कर्म है ऐसा यहाँ ग्रहण किया है। परन्तु पहला जो निषेकस्थितिप्राप्त कर्म है सो वहाँ अपकर्षण और उत्कर्षणके वशसे यत्र तत्र कहीं भी निक्षिप्त होकर कर्म अवस्थित रहता है परन्तु गलते समय उसी स्थितिमें वह कर्म उदयको प्राप्त होता है, यह अर्थ लिया गया है। शंका-यथानिषिक्त कर्मकी यथानिषेक यह संज्ञा कैसे हो सकती है ? समाधान-ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि- 'क, ग, त, द, य और व इनका लोप होने पर स्वर उनके अर्थकी पूर्ति करते हैं।' व्याकरणके इस नियमके अनुसार 'य' का लोप करके उक्त प्रकारसे निर्देश किया है। नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी जो प्रदेशपुंज बन्धके समय जिस प्रकारसे निक्षिप्त हुआ है उसी प्रकारसे अवस्थित रहकर स्थितिका क्षय होने पर उदयमें आता है उसकी यह सार्थक संज्ञा है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। विशेषार्थ-निषेकस्थितिप्राप्तसे इसमें इतना ही अन्तर है कि वहाँ तो जिनका अपकर्षण उत्कर्षण होकर छान्यत्र निक्षेप हुआ है, अपकर्षण उत्कर्षण होकर वे परमाणु यदि पुनः उसी स्थितिमें प्राप्त होकर उदयमें आते हैं तो उनका ग्रहण होता है परन्तु यथानिषेकस्थितिप्राप्तमें उन्हीं परमाणुओंका ग्रहण होता है जो तदवस्थ रहकर अन्तमें उद्यमें आते हैं। इसके सिवा इन दोनोंमें और कोई अन्तर नहीं है। ___ * उदयस्थितिमाप्त किसे कहते हैं ? ६६०६. पूर्वोक्त सभी स्थितिप्राप्त कर्म उदयकी अपेक्षा ही कहे हैं, इसलिये उनसे इसमें कोई भेद नहीं रहता इस प्रकारकी आशंकाके होने पर यह पृच्छासूत्र प्रवृत्त हुआ है। अब इस आशंकाके निराकरण करने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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