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गा० २२ ]
पदेस वित्ती द्विदियचूलियाए समुत्तिणा
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णासंकणिज्जं पुणो वि उक्कड्डुणोकडणाहि तहाभावात्रिरोहादो । ण सव्वेसिं णिसेंयहिदिपत्यत्तादो एदस्स विसेसियपरूवणा णिरत्थिया त्ति पुच्चिल्लासंका वि, ते समेत्तो विसेसणादो |
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* धाणिसेयद्विदिपत्तयं णाम किं ?
६६०४. किमेदसु कस्सहिदिपत्तयं व एयसमयपबद्ध पडिवद्धमाहो णाणासमयपबद्धणिबंधणिसेयद्विदिपत्तयं व, को वा तत्तो एदस्स लक्खणविसेसो त्ति ? एवं विहाहिप्पारण पयट्टमेदं पुच्छासुतं ।
* जं कम्मं जिस्से हिंदीए पिसित्तं अणोकडिदं अणुक्कडिदं तिस्से चैव हिदी उदर दिस्सइ तमधाणि सेयद्विदिपत्तयं ।
१६०५ एतदुक्तं भवति - जइ वि एदं णाणासमयपबद्धावलंबि तो वि
समाधान-—ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि पहले जिन कर्मों का अपकर्षण हुआ था उनका उत्कर्षण होकर और जिन कर्मों का उत्कर्षण हुआ था उनका अपकर्षण होकर उदय समय में फिरसे उसी स्थितिमें दिखाई देना विरोधको प्राप्त नहीं होता है ।
यदि कहा जाय कि सभी कर्म निषेकस्थितिप्राप्त होते हैं, इसलिये इसका विशेष रूप से कथन करना निरर्थक है सो ऐसी आशंका करना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इससे उनमें विशेषता आ जाती है।
विशेषार्थ यहाँ पर निषेकस्थितिप्राप्त कर्मसे क्या अभिप्राय है इसका खुलासा किया गया है । यद्यपि निषेकरचना के बाहर कोई भी कर्म नहीं होता है पर प्रकृतमें यह अर्थ इष्ट है कि बन्धके समय जो कर्म जिस निषेकमें प्राप्त हुआ हो उदय के समय भी वह कर्म यदि निषेक में दिखाई देता है तो वह निषेकस्थितिप्राप्त है । जैसे उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त में अग्रस्थितिकी मुख्यता रही निषेककी नहीं वैसे ही यहाँ किसी भी स्थितिकी मुख्यता न होकर निषेककी मुख्यता है । यही कारण है कि प्रकृत में नाना समयप्रबद्धसम्बन्धी एक निषेकका ग्रहण किया है। इस एक निषेकमें विविध समयप्रबद्धोंके विविध स्थितिवाले कर्मपरमाणु पाये जाते हैं यह इसका तात्पर्य है । यहाँ इतना और विशेष जानना चाहिए कि अपकर्षण और उत्कर्षण होकर जो कर्म विवक्षित निषेकसे नीकी और ऊपर की स्थितिमें निक्षिप्त हो गये हैं, पुनः उत्कर्षण और अपकर्षण होकर यदि वे उसी विवक्षित निषेक में आकर उदय समयमें उसी निषेकमें दिखाई देते हैं तो उनका भी यहाँ ग्रहण हो जाता है।
* यथानिषेक स्थितिप्राप्त किसे कहते हैं ।
६ ६०४. क्या यह उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त कर्मके समान एक समयप्रबद्ध सम्बन्धी है या निषेकस्थितिप्राप्त के समान नाना समयप्रबद्ध सम्बन्धी है ? उनसे इसके लक्षणमें क्या विशेषता है इस तरह इस प्रकार के अभिप्राय से यह सूत्र प्रवृत्त हुआ है ।
* जो कर्म जिस स्थितिमें निक्षिप्त हुआ है अपकर्षण और उत्कर्षणके बिना यदि वह कर्म उदय के समय उसी स्थितिमें दिखाई देता है तो यह यथानिषेकस्थितिप्राप्त कहलाता है ।
६०. इस सूत्र का यह अभिप्राय है - यद्यपि इसका नाना समयप्रबद्धोंसे सम्बन्ध है
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