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________________ ३७३ । गा० २२ } पदेसविहत्तीए द्विदियचूलियाए समुकित्तणा जं कम्ममुदए जत्थ वा तत्थ वा दिस्सइ तमुदयहिदिपत्तयं । ६६०७. एदस्स भावत्यो–ण ताव अग्गद्विदिपत्तयम्मि एदस्स अंतव्भावो, हिदिविसेसमेयसमयपबद्धं च पेक्खियूण तस्स परूवियत्तादो। एत्थ तहाविहणियमाभावादो । ण णिसेय-जहाणिसेयहिदिपत्तएमु वि, तेसि पि बंधसमयणिसेयपडिबद्धत्तादो। तदो जं कम्म जत्थ वा तत्थ वा हिदीए होदूण अविसेसेण उदयमागच्छदि तमुदयहिदिपत्तयमिदि घेत्तव्वं । 8 एदमपदं । ६६०८. उक्कस्सहिदिपत्तयादीणं चउण्हं पि अत्यविसयणिण्णयणिबंधमेदमपदं सव्वेसि कम्माणं साहारणभावेण परूविदमवहारेयव्वं । पुणो वि विसेसिय चउण्हमेदेसि परूवणमुत्तरसुत्तं भणइ * एत्तो एक कहिदिपत्तयं चउब्विहमुक्कस्समणुक्कस्सं जहएणमजहणणं च । ६०६. एत्तो अट्टपदपरूवणाणंतरमेक्कक्कद्विदिपत्तयं चउव्विहं होइ उक्कस्सादिभेएण । एत्थ एक कहिदिपत्तयग्गहणं पादेक्कं चउण्हं चउहि अहिसंबंधणहमेक्केकस्स वा मिच्छत्तादिपयडिविसेसस्स चउविहं पि हिदिपत्तयं पादेकमुक्कस्साइभेएण * जो कर्म उदयके समय यत्र तत्र कहीं भी दिखाई देता है बह उदयस्थिति प्राप्त कहलाता है। ६६०७. इस सूत्रका भावार्थ यह है कि अग्रस्थिति प्राप्तमें तो इसका अन्तर्भाव होता नहीं, क्योंकि वह स्थितिविशेष और एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा प्रवृत्त हुआ है। किन्तु इसमें उस प्रकारका कोई नियम नहीं पाया जाता। निषेकस्थितिप्राप्त और यथानिषेकस्थितिप्राप्त कर्मों में भी इसका अन्तर्भाव नहीं हो सकता, क्योंकि वे भी बन्ध समयके निषेकोंसे प्रतिबद्ध हैं, इसलिये जो कर्म जहाँ कहीं भी स्थितिमें रहकर अन्य किसी प्रकारकी विशेषताके बिना उदयको प्राप्त होता है वह उदयस्थितिप्राप्त कर्म है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । * यह अर्थपद है। ६६०८. उत्कृष्ट स्थितिप्राप्त आदि चारोंका भी अर्थविषयक निर्णय करनेके सम्बन्ध यह अर्थपद आया है जो साधारणभावसे सब कर्मों का कहा गया जानना चाहिये । अब फिर भी इन चारोंके विषयमें विशेष बातके कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * एक एक स्थितिप्राप्तके चार चार भेद हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य । ६६०६ अब इस अर्थपदके कथन करनेके बाद उत्कृष्ट आदिके भेदसे एक एक स्थितिप्राप्त चार-चार प्रकारका है यह बतलाते हैं। यहाँ सूत्रमें प्रत्येक स्थितिप्राप्तका चार चारसे सम्बन्ध बतलानेके लिये 'एक्केकढिदिपत्तयं, पदका ग्रहण किया है। अथवा मिथ्यात्व आदिके एक एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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