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________________ ३७४ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे esort होइ त्ति घेतव्वं । तदो सव्वेसिं कम्माणं पुध पुध द्विदिपत्ताणमुकस्सादिपदविसे सिदाणमोघादेसेहि परूवणा समुत्तिणाणियोगद्दारं समत्तं । सामित्तं । $ ६१०. सुगममेदमहियार संभालणसुतं । * मिच्छत्तस्स उस्सयमग्गहिदिपत्तयं कस्स ? ६११. सुगममेदं पुच्छाचक्कं । एवं सामित्तविसयाए पुच्छार तस्सेव परिकरभावेण अग्गहिदिपत्तयवियप्पपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणइ [ पदेस विहत्ती ५ णिरंभणं काऊण चउन्हें कायव्वा । एवं कदे * अग्गद्विदिपत्तयमेक्को वा दो वा पदेसा एवमेगादि - एगुत्तरियाए बड्डीए जाव ताव उक्कसयं समयपबद्धस्स अग्गहिदीए जत्तियं णिमित्तं तत्तियमुक्कस्से गहिदिपत्तयं । $ ६१२. अग्गहिदिपत्तयस्स उक्कस्ससामित्ते पुच्छिदे तमपरूविय तन्त्रियप्पपरूवणा किम करदे ९ ण, उक्कस्सदव्वपमाणे अणवगर तव्विसयसामित्तस्स सुहेणावगं तुम सक्कियत्तादो | अहवा उक्कस्ससामित्तपरूवणाए अणुकरससामित्तं पि प्रकृतिविशेषके चारों ही स्थितिप्राप्त प्रत्येक उत्कृष्ट आदिके भेदसे चार चार प्रकार के होते हैं यह यहाँ पर लेना चाहिये । इसलिये सभी कर्मों को अलग अलग विवक्षित करके उत्कृष्ट आदि पदोंसे युक्त चारों ही स्थितिप्राप्तोंका ओघ और आदेशकी अपेक्षा कथन करना चाहिये । इस प्रकार करने पर समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार समाप्त होता है । * अब स्वामित्वका अधिकार है । $६१०. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्व कर्मकी अपेक्षा उत्कृष्ट अग्रस्थितिप्राप्त कर्मका स्वामी कौन है ? $ ६९१. यह पृच्छावाक्य सरल है । इस प्रकार स्वामित्वविषयक पृच्छाके होने पर उसीके परिकररूपसे अग्रस्थितिप्राप्तके भेदोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं * एक कर्मपरमाणु अग्रस्थितिप्राप्त होता है, दो कर्मपरमाणु अग्रस्थितिप्राप्त होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक कर्मपरमाणु बढ़ाने पर एक समयबद्धकी स्थिति में जितना उत्कृष्ट द्रव्य निचिप्त होता है उत्कृष्ट रूपसे उतना द्रव्य अग्र स्थितिप्राप्त होता है । $६१२. शंका – पूछा तो अग्रस्थितिप्राप्त कर्मके उत्कृष्ट स्वामित्वके विषय में गया था पर उसका कथन न करके यहाँ उसके भेदोंका कथन किसलिये किया गया है ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट द्रव्यके प्रमाणके अवगत रहने पर तद्विषयक स्वामित्वका सुखपूर्वक ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिये यहाँ उसके भेदोंका कथन किया गया है । अथवा उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते समय अनुत्कृष्ट स्वामित्वका भी कथन करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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