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________________ इसके अन्तरकालका निषेध किया है। यह ओघप्ररूपणा है। आदेशसे गति आदि मार्गणाओं में यह अन्तरकाल अपनी अपनी विशेषताको समझ कर घटित कर लेना चाहिए। नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय-यह प्ररूपणा भी जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारकी है। नियम यह है कि जो उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव हैं वे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति. वाले नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं होते । यह अर्थपद है। इसके अनुसार यहाँ अोघसे और चारों गतियोंकी अपेक्षा मूल और उत्तर प्रकृतियोंका आलम्बन लेकर भङ्गविचयका विचार करते हुए ये तीन भङ्ग निष्पन्न किये गये हैं-१ कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं, २ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं और एक जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला है तथा कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले नहीं हैं और नाना जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार तीन भङ्ग कहने चाहिए। किन्तु इन भङ्गोंको कहते समय जहाँ निषेध किया है वहाँ विधि करनी चाहिए और जहाँ विधि की है वहाँ निषेध करना चाहिए। ये भङ्ग ओघसे तो बन ही जाते हैं। साथ ही चारों गतियों में भी बन जाते हैं। मात्र लब्ध्यपर्याप्तमनुष्य यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा प्रत्येकके आठ आठ भङ्ग होते हैं । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी पूर्वोक्त प्रकारसे सब कथन कर लेना चाहिए । मात्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य पदकी योजना करनी चाहिए। भागाभाग—इस अनुयोनद्वारमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट तथा जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा कौन किसके कितने भागप्रमाण हैं इसका विचार किया गया है। सामान्यसे सब जीव अनन्त हैं। उनमेंसे अधिकसे अधिक असंख्यात जीव एक साथ उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका बन्ध कर सकते हैं, इसलिए छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण और शेष अनन्त बहुभागप्रमाण जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव अधिकसे अधिक असंख्यात ही होते हैं। इसलिए इनकी अपेक्षा असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव और असंख्यात बहुभागप्रमाण अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव होते हैं। सामान्य तियञ्चों में यह प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनमें ओघके समान जाननेकी सूचना की है। मात्र गतिसम्बन्धी शेष अवान्तर सेदोंमें अपने अपने संख्यातप्रमाणको दृष्टिमें रख कर इसका विवेचन करना चाहिए। जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भागाभागका विचार उत्कृष्टके समान ही है यह स्पष्ट ही है, इसलिए इसकी अपेक्षा पृथक् विवेचन न करके उत्कृष्टके समान जाननेकी सूचना की है। सामान्य मोहनीयकर्मकी अपेक्षा भागाभागका विचार नहीं किया है यहां इतना विशेष जानना चाहिए। परिमाण-इस अनुयोगद्वारमें उत्कृष्टादि चारों प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंके परिमाणका निर्देश किया गया है। सामान्यसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकौशिक जीवोंके यथास्थान होती है और ऐसे जीव असंख्यात होते हैं, इसलिए मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका परिमाण असंख्यात है। इसके सिवा शेष सब संसारी जीवोंके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, इसलिए उनका परिमाण अनन्त है । मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा यह परिमाण इसी प्रकार बन जाता है, इसलिए इनकी उत्कृष्ट और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001413
Book TitleKasaypahudam Part 07
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages514
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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